Book Title: Rakshabandhan aur Deepavali
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 15
________________ रक्षाबंधन : कुछ प्रश्नोत्तर २८ रक्षाबंधन और दीपावली फिर उनके समान ही सब कुछ करें। उन्होंने यह सब मुनिपद छोड़कर किया था; पर........। ५.प्रश्न : उस समय भी श्रुतसागर और विष्णुकुमार जैसे मुनिराज थे? उत्तर : हाँ, थे तो; पर सात सौ में एक-दो, सभी नहीं। शेष सब तो आत्मा के ज्ञान-ध्यान में ही मग्न रहे थे। विपरीत से विपरीत परिस्थिति में भी आकुल-व्याकुल नहीं हुये, अपने पथ से नहीं डिगे। पर आज तो अधिकांश को विष्णुकुमार बनना है, श्रुतसागर बनना है; मुहतोड़ जवाब देना है, विरोधियों की सात पीढ़ियों का बखान करना है और न मालूम क्या-क्या करना है। आचार्य अकंपन के आदर्श पर चलनेवाले तो उंगलियों पर गिनने लायक हैं। श्रुतसागरजी ने वाद-विवाद एक बार ही किया था, शेष जीवनभर तो वे आत्मज्ञान-ध्यान में लीन रहे थे। इसीप्रकार विष्णुकुमारजी ने भी यह सब एक बार ही किया था, आगे-पीछे तो वे भी आत्मज्ञानध्यानरत रहे। यदि उन्हें आदर्श बनाना है तो उनके आत्मध्यानवाले रूप को अपना आदर्श क्यों नहीं बनाते ? ६. प्रश्न : मुनिराजों की बात जाने दो, पर हम गृहस्थों को तो उनकी पूजा ही करनी चाहिए न ? उत्तर : अवश्य करना चाहिए; पर उनके इन कार्यों के कारण नहीं, अपितु उनकी वीतरागता के कारण, उनके आत्मध्यान के कारण । ७. प्रश्न : इन कार्यों के कारण क्यों नहीं, यह भी तो.....? उत्तर : हाँ, यह भी अच्छा कार्य है, पर उन्होंने जब यह कार्य किया था, तब तो वे अव्रती गृहस्थ बन गये थे। क्या अव्रती गृहस्थों की भी पूजन की जाती है ? उनका यह बावनियों का रूप पूज्य नहीं हो सकता और इसके कारण उनकी पूजा भी नहीं हो सकती। ८. प्रश्न : आप तो ज्ञान-ध्यान में लीन साधुओं के ही गीत गाये जा रहे हैं: कछ संत समाज का काम करनेवाले भी तो चाहिए। आचार्य समन्तभद्र ने भी तो इसीप्रकार प्रभावना की थी? क्या उनके बारे में भी आपका सोचना ऐसा ही है ? उत्तर : अरे भाई ! आचार्य समन्तभद्र तो रत्नकरण्डश्रावकाचार में स्वयं ही लिखते हैं कि - विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरक्तः तपस्वी स प्रशस्यते ।। पाँच इन्द्रियों के विषयों से विरक्त, आरंभ-परिग्रह से रहित और ज्ञान-ध्यान में लीन तपस्वी ही प्रशंसा योग्य हैं। इसप्रकार हम भी आचार्य समंतभद्र की बात को ही प्रस्तुत कर रहे हैं। ९. प्रश्न : उन्होंने अपनी भक्ति के माध्यम से शिव की पिंडी में से चन्द्रप्रभ भगवान को प्रगट कर दिया था। उत्तर : उन्होंने जो कुछ भी किया था, वह सब मुनिपद छोड़कर किया था। क्या मुनिपद पर रहते हुए भी शिवजी को भोजन कराने की असत्य बात कहना, चोरी से वह भोजन खुद खा जाना आदि कार्य किये जा सकते हैं ? धर्म की बात तो बहुत दूर क्या इन्हें पुण्य कार्य भी कहा जा सकता है ? क्या आप यह चाहते हैं कि आज के युग में भी कोई ऐसा करे ? अरे, उनकी दीक्षा का भी तो छेद हो गया था। ये कुछ बातें हैं, जो गंभीर चिंतन-मनन की अपेक्षा रखती हैं। ज्ञान-ध्यान से विरक्त और आरंभ-परिग्रह के विकल्पों में उलझे कुछ लोग जब आचार्य समंतभद्र से अपनी तुलना करते हैं तो हंसी आती है। १०. प्रश्न : आचार्य समन्तभद्र को तो भस्मकव्याधि हो गई थी; इसलिए उन्हें ऐसा करना पड़ा ? उत्तर : यह बात तो सत्य ही है। फिर भी कुछ प्रश्न चित्त को आन्दोलित करते हैं। उन्हें अपनी व्याधि के शमन के लिये विधर्मियों का सहारा क्यों लेना पड़ा, असत्य क्यों बोलना पड़ा, चोरी से पेट क्यों भरना पड़ा और आहार-जल की शुद्धि से विहीन आहार क्यों लेना पड़ा? क्या यह जैन समाज का कर्त्तव्य नहीं था कि उनके आहार-पानी की शुद्ध सात्विक व्यवस्था करता, उनकी व्याधि का अहिंसक उपचार कराता।

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