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रक्षाबंधन और दीपावली
अक्षम्य अपराध
मानभंग की पीड़ा उन्हें चैन न लेने देगी। अपमानित मानी क्रोधित भुजंग एवं क्षुतातुर मृगराज से भी अधिक दुःसाहसी हो जाता है। आज संघ खतरे में है।" - कहते-कहते आचार्यश्री और भी अधिक गम्भीर हो गये।
आचार्य अकम्पन की गुरुतर गम्भीरता देख श्रुतसागर अन्दर से हिल गये। वे जिसे अपनी विजय समझ रहे थे, वह अकंपन को भी कंपा देनेवाला अक्षम्य अपराध था - इसका अहसास उन्हें गहराई से हो रहा था। वे स्पष्ट अनुभव कर रहे थे कि आचार्यश्री का अन्तर प्रतिदिन की भाँति प्रायश्चित्त निश्चित करने में व्यस्त नहीं, अपितु संघ की सुरक्षा की करुणा में विगलित हो रहा है।
प्रत्युत्पन्नमति श्रुतसागर को निर्णय पर पहुँचने में अधिक देर न लगी और वे आचार्यश्री के चरणों में नतमस्तक हो बोले -
“इस नादान के अविवेक का परिणाम संघ नहीं भोगेगा । मैं आज उसी स्थान पर रात्रि बिताऊँगा, जहाँ बलि आदि मंत्रियों से मेरा विवाद हुआ था - इसके लिए आचार्यश्री की आज्ञा चाहता हूँ।"
__ "नहीं, यह सम्भव नहीं है। परिणाम की दृष्टि से यह अपराध कितना ही बड़ा क्यों न हो, पर इसमें तुम्हारा धर्मप्रेम ही कारण रहा है।
दिगम्बरत्व के अपमान ने तुम्हें उद्वेलित कर दिया और फिर तुम्हें हमारी उस आज्ञा का पता भी तो नहीं था; जिसमें सभी संघ को मौन रहने का आदेश था, विशेषकर मंत्रियों से किसी भी प्रकार की चर्चा करने का निषेध था। अत: तुम्हें इतना कठोर प्रायश्चित देना मेरा हृदय स्वीकार नहीं करता।” ___ “पूज्यवर ! सवाल प्रायश्चित का नहीं, संघ की सुरक्षा का है। आपने ही तो हमें सिखाया है कि अनुशासन-प्रशासन हृदय से नहीं, बुद्धि से चलते हैं।"
"श्रुतसागर के जीवन का मूल्य मैं अच्छी तरह जानता हूँ।"
"कोई भी इतना मूल्यवान नहीं हो सकता कि जिसपर संघ को न्यौछावर किया जा सके। हम आपके इस आप्तवाक्य को कैसे भूल सकते हैं कि अपराधी को दण्ड देते समय न्यायाधीश को उसके गुणों और उपयोगिता पर ध्यान नहीं देना चाहिए।"
“जानते हो श्रुतसागर लाखों में एक होता है ? समाज को उसका मूल्य आंकना चाहिये।” ___ “साधु सामाजिक मर्यादाओं से परे होते हैं। साधु को श्रुत के सागर से संयम का सागर होना अधिक आवश्यक है।
मैंने वाणी के संयम को तोड़ा है। मौनव्रती साधकों की महानता को वाचाल साधक नहीं पहुँच सकता। मैंने आपकी आज्ञा को भंग किया है। मेरा अपराध अक्षम्य है।"
“पर तुम्हें मेरी आज्ञा का पता ही कहाँ था ?"
“पर श्रुत के सागर को इतना विवेक तो होना चाहिए था कि राह चलते लोगों से व्यर्थ के विवाद में न उलझे । मेरा यह अविवेक तो युग के अन्त तक याद किया ही जायेगा, पर मुझे यह सह्य नहीं है कि इतिहास यह भी कहे कि प्रियतम शिष्य के व्यामोह ने आचार्य अकंपन को भी अकंपन न रहने दिया था। ____ मुझसे जो कुछ भी हुआ सो हुआ; पर मैं अपने गुरु की गुरुता को खण्डित नहीं होने दूंगा। आचार्यश्री को मेरे इस हठ को पूरा करना ही होगा।'
आचार्य अकंपन और भी गम्भीर हो गये। उनके गम्भीर मौन को सम्मति का लक्षण जानकर श्रुतसागर उनके चरणों में झुके, नमोऽस्तु किया और मंगल आशीर्वाद की मौन याचना करने लगे।
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