Book Title: Rakshabandhan aur Deepavali
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 22
________________ दीपावली : कुछ प्रश्नोत्तर दीपावली: कुछ प्रश्नोत्तर १. प्रश्न : क्या आपके पास ऐसी कोई योजना है कि जिसके द्वारा भगवान महावीर की वाणी को, उनके बताये तत्त्वज्ञान को जन-जन तक पहुँचाया जा सके ? उत्तर : अरे, भाई ! सबसे पहली बात तो यह है कि प्रथमतः तो भगवान महावीर के बताये तत्त्वज्ञान को स्वयं समझना होगा; क्योंकि स्वयं समझे बिना न तो आत्मकल्याण ही हो सकता है और उसका प्रचार-प्रसार ही किया जा सकता है। स्वानुभूति के लिए स्वयं में सिमटना जरूरी है और तत्त्वप्रचार के लिए समाज में फैलना, फैलकर उसी में समाहित हो जाना आवश्यक है। ___ यद्यपि ये दोनों क्रियाएँ परस्पर विरुद्ध प्रतीत होती हैं; तथापि ज्ञानियों के जीवन में इनका संतुलित समुचित समावेश होता ही है। इसके लिए जिनागम का स्वाध्याय करना, अभ्यास करना अत्यन्त आवश्यक है; क्योंकि इसके बिना भगवान महावीर की वाणी का मर्म समझना संभव नहीं है। भगवान महावीर की वाणी को जन-जन तक पहुँचाने के मार्ग को प्रशस्त करते हुए पण्डित टोडरमलजी लिखते हैं - ___“हे भव्यजीवो ! शास्त्राभ्यास के अनेक अंग हैं। शब्द या अर्थ का बांचना या सीखना, सिखाना, उपदेश देना, विचारना, सुनना, प्रश्न करना, समाधान जानना, बारम्बार चर्चा करना इत्यादि अनेक अंग हैं, वहाँ जैसे बने तैसे अभ्यास करना । यदि सर्व शास्त्रों का अभ्यास न बने तो इस शास्त्र में सुगम व दुर्गम, अनेक अर्थों का निरूपण है; वहाँ जिसका बने उसका ही अभ्यास करना; परंतु अभ्यास में आलसी नहीं होना। देखो ! शास्त्राभ्यास की महिमा ! जिसके होने पर जीव परम्परा से आत्मानुभव दशा को प्राप्त होता है, जिससे मोक्षरूप फल प्राप्त होता है। यह तो दूर ही रहो, शास्त्राभ्यास से तत्काल ही इतने गुण प्रगट होते हैं - १.क्रोधादि कषायों की मंदता होती है। २. पंचेन्द्रियों के विषयों में होनेवाली प्रवृत्ति रुकती है। ३. अति चंचल मन भी एकाग्र होता है। ४. हिंसादि पाँच पाप नहीं होते। ५. स्तोक (अल्प) ज्ञान होने पर भी त्रिलोक के तीन काल संबंधी चराचर पदार्थों का जानना होता है। ६. हेय-उपादेय की पहचान होती है। ७. आत्मज्ञान सन्मुख होता है। (ज्ञान आत्मसन्मुख होता है।) ८. अधिक-अधिक ज्ञान होने पर आनन्द उत्पन्न होता है। ९. लोक में महिमा/यश विशेष होता है। १०. सातिशय पुण्य का बंध होता है। इतने गुण तो शास्त्राभ्यास करने से तत्काल ही प्रगट होते हैं, इसलिए शास्त्राभ्यास अवश्य करना। जैसे हो सके वैसे इस शास्त्र का अभ्यास करो, अन्य जीवों को जैसे बने वैसे शास्त्राभ्यास कराओ और जो जीव शास्त्राभ्यास करते हैं, उनकी अनुमोदना करो। पुस्तक लिखवाना वा पढ़ने-पढ़ानेवालों की स्थिरता करना, इत्यादि शास्त्राभ्यास के बाहाकारण, उनका साधन करना; क्योंकि उनके द्वारा भी परम्परा कार्यसिद्धि होती है व महान पुण्य उत्पन्न होता है। उत्तम निवास, उच्च कुल, पूर्ण आयु, इन्द्रियों की सामर्थ्य, निरोगपना, सुसंगति, धर्मरूप अभिप्राय, बुद्धि की प्रबलता इत्यादि की प्राप्ति होना उत्तरोत्तर महादुर्लभ है। यह प्रत्यक्ष दिख रहा है और इतनी सामग्री मिले बिना ग्रन्थाभ्यास बनता नहीं है। सो तुमने भाग्य से यह अवसर पाया है: इसलिये तुमको हठ से भी तुम्हारे हित के लिये प्रेरणा करते हैं।" उक्त सम्पूर्ण कथन का सार मात्र इतना ही है कि परम वीतरागी सर्वज्ञ भगवान महावीर की वाणी में समागत वीतरागी तत्त्वज्ञान को १. सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका (गुणस्थान विवेचन, पृष्ठ : २८-२९) (24)

Loading...

Page Navigation
1 ... 20 21 22 23 24