Book Title: Rakshabandhan aur Deepavali
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 20
________________ ३८ रक्षाबंधन और दीपावली महावीर का निर्वाण पावापुरी में हुआ था और उसी दिन गौतम स्वामी को केवलज्ञान गुणावा में हुआ। अत: यह तो सिद्ध ही है कि वे अन्तिम समय में उनके पास नहीं थे। उक्त सन्दर्भ में मेरा कहना यह है कि क्या भगवान के ज्ञान में यह बात ज्ञात न थी कि आज शाम को गौतम स्वामी को केवलज्ञान होनेवाला है। यदि पता था तो फिर उन्हें ऐसा विकल्प कैसे आ सकता है ? अरे वे तो विकल्पातीत हो गये थे। इसप्रकार के विकल्प की बात से तो उनकी सर्वज्ञता के साथ-साथ वीतरागता भी खण्डित हो जाती है। विगत तीस वर्ष तक भगवान की दिव्यध्वनि सुननेवाले भी यदि वियोग बरदाश्त नहीं कर पाये तो फिर कौन ऐसा होगा, जो यह सब सहेगा? ___इष्ट का वियोग होने पर दुःख तो सभी को होता है; पर रागी से रागी प्राणी भी जीते तो हैं ही। प्रिय पति के वियोग में पत्नियाँ जीती हैं, माँ-बाप के वियोग में बाल-बच्चे जीते हैं और बच्चों के वियोग में माँ-बाप भी जीते ही हैं। जब रागी लोग भी सब कुछ बरदाश्त कर लेते हैं तो विरागियों के लिए तो यह सहज ही है। गौतमस्वामी जैसे विरागी गणधरदेव के लिए इसप्रकार की चिन्ता करना पड़े - यह समझ के बाहर की बात है। इस पर वे प्रश्न करते हैं कि यदि ऐसा नहीं है तो फिर वे वहाँ उपस्थित क्यों नहीं थे? अरे, भाई ! जबतक दिव्यध्वनि खिरती थी, तबतक वे निरन्तर उन्हीं के पास रहे; पर जब दिव्यध्वनि खिरना बन्द हो गई तो वे वहाँ नहीं रहे, गुणावा चले गये। गुणावा क्यों अपने में चले गये। शाम को ही उन्हें केवलज्ञान हो गया - यह इस बात का प्रतीक है कि वे पूर्ण वीतरागता की ओर तेजी से बढ़ रहे थे; अन्यथा यह सब कैसे होता? पूर्ण वीतरागता की ओर बढ़नेवाले के संबंध में केवलज्ञानी ऐसी आशंका करें कि वह वियोग सह न पावेगा - यह बात महावीर और गौतमस्वामी - दोनों का ही अपमान है। दीपावली और गुणावा पावापुरी से कितना दूर है ? यह भी तो हो सकता है कि वह महावीर के समवशरण की मर्यादा में ही आता हो; क्योंकि समवशरण का विस्तार भी तो कम नहीं होता। यह बात भी तो है कि आखिर यह बात कबतक छुपती ? जब पता चलता, तब भी तो कुछ हो सकता था। अरे, भाई ! सर्वज्ञ सोचा नहीं करते; क्योंकि सोचने की क्रिया तो मति-श्रुतज्ञान में होती है और उनके मति-श्रुतज्ञान नहीं, केवलज्ञान था। हमारी चर्चा का मूल बिन्दु तो यह है कि आखिर हम दीपावली मनाये कैसे ? इसके उत्तर में यह कहा गया था कि जिसप्रकार उनके वरष्ठितम शिष्य गौतमस्वामी ने मनाई थी, उसीप्रकार हम भी मनायें। भगवान महावीर के वियोग के अवसर पर गौतमस्वामी रोने नहीं बैठ गये थे; अपितु जगत से दृष्टि हटाकर अपने में चले गये थे। मानों अबतक दिव्यध्वनि सुनने के विकल्प में ही वे निर्विकल्प नहीं हो सके थे। अब वह विकल्प टूटा तो निर्विकल्प होकर अपने में चले गये। अपने में गये सो ऐसे गये कि वापिस बाहर आये ही नहीं; केवलज्ञान लेकर ही रहे और वीतरागी तत्त्वज्ञान को जो झंडा अबतक भगवान महावीर फहरा रहे थे, उनके वियोग में उन्होंने उसे थाम लिया, गिरने नहीं दिया। उनकी दिव्यध्वनि खिरने लगी और श्रोता पूर्ववत ही लाभ उठाने लगे। इसप्रकार भगवान महावीर की वाणी में समागत तत्त्वज्ञान की धारा अविरल रूप से प्रवाहित होती रही। महात्मा गांधी ने आजादी की जंग जीतने के लिये मारनेवालों की नहीं, मरनेवालों की एक फौज तैयार की थी; जो बिना कुछ लिये-दिये देश के लिए मरने-मिटने को तैयार थी। सामने अत्याचारी मारनेवालों की फौज थी और आजादी के दीवानों को मारने पर उन्हें तरक्की मिलती थी, पुरस्कार मिलता था; पर गांधी के इन फौजियों को कुछ भी नहीं मिलता; अपितु उनका सब (22)

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