Book Title: Rajasthani Kavya Parampara me Sudarshan Charit
Author(s): Gulabchandra Maharaj
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 2
________________ ५६० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन प्रन्थ : पंचम खण्ड D.-.-.--.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. चरित काव्यों की परम्परा सुदर्शनचरित आचार्य भिक्षु द्वारा रचित सुप्रसिद्ध चरित काव्य है। भारतीय वाङ्मय में चरित-लेखन की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। भारतीय मनीषियों ने जिस वस्तु या व्यक्ति में आदर्श का निरूपण पाया, उसे जन-मानस के समक्ष रखने का प्रयास किया। महर्षि वाल्मीकि ने भगवान् राम के चरित्र को अपनी रामायण का विषय बनाया। जैन-परम्परा में होने वाले विद्वानों एवं कवियों ने भी तीर्थकरों तथा अन्य महापुरुषों के चरित-लेखन के द्वारा चरित काव्यों की परम्परा को समृद्ध बनाया । संक्षेप में कहा जा सकता है कि यहाँ के प्रबद्ध-चेता मनीषियों का इतिवृत्त लिखने का क्रम प्रायः आदर्शानुप्राणित ही रहा है । यद्यपि प्राचीनकाल में अनेक योद्धा, शूरवीर और राजा भी हुए हैं, किन्तु भारत ने उन्हें भुला दिया। भारतीय जन-मानस के लिए केवल इतना ही पर्याप्त नहीं था कि किसी व्यक्ति ने जन्म लिया, राज्य किया या युद्ध किया हो, वह उनमें कुछ और भी विशिष्टता ढूंढने की कोशिश करता है। यदि उसमें कुछ और विशिष्टता नहीं है तो ऐसे व्यक्तियों का होना या नहीं होना एक समान है। इस प्रवृत्ति के परिहारस्वरूप कुछ ख्यातिप्रिय राजाओं ने अनेक प्रशस्तियों और दरबारी कवियों के काव्यों द्वारा अपने को अमर करने का प्रयास किया। संस्कृत साहित्य में हर्षचरित, नवसाहसांक चरित्र, पृथ्वीराज-विजय काव्य आदि कुछ ऐसे ग्रन्थ हैं, जिनमें राजाओं का यशोगान पर्याप्त मात्रा में विद्यमान है। किन्तु ये ग्रन्थ भी वणित राजाओं की महत्ता से नहीं, किन्तु विशिष्ट कवियों के विलक्षण कवित्व के कारण जीवित हैं। भारत की आदर्शानुप्राणित परम्परा में उसी कृति को अमरत्व मिलता है जो हमारे सामने किसी प्रकार का आदर्श उपस्थित करे। विशेषत: जैन परम्परा में तो महनीय वही है जो क्रमश: वीतरागत्व की ओर गतिमान हो। उसी के प्रभाव से जनता कैवल्य-प्राप्ति के उन्मुख हो सकती है । आचार्य भिक्षु का सुदर्शन चरित इसी उद्देश्य का पूरक है। भाषा और शैली-आचार्य भिक्षु के काव्य-ग्रन्थों की भाषा मुख्यत: मारवाड़ी है। मुख्यत: इसलिए कि उसमें गुजराती की भी एक हल्की सी फुट है। आचार्य भिक्षु का जन्म मारवाड़ में हुआ था। उनका कार्यक्षेत्र प्रमुख रूप से मारवाड़ और मेवाड़ रहा है। उन्होंने अपनी कविता में जिस भाषा का प्रगोग किया है, वह मारवाड़ी और मेवाड़ी का मिश्रित रूप है। मेवाड़ गुजरात का सीमावर्ती भूखण्ड है, अत: आचार्य भिक्षु की भाषा में गुजराती का भी मिश्रण हुआ है। . आचार्य भिक्षु की रचनाओं में तत्त्वज्ञान, आचार-विश्लेषण, जीवनचरित्र, धर्मानुशासन की मर्यादा आदि मौलिक विषयों का स्पर्श हुआ है। चरितकाव्यों में सुदर्शन चरित का अपना एक महत्त्वपूर्ण और स्वतन्त्र स्थान है। इसमें पात्रों के चरित्र-चित्रण एवं भावों की अभिव्यंजनात्मक शैली का अनुपम निदर्शन मिलता है। इसमें विभिन्न रागिनियों में ४२ गीतिकाएँ हैं । इनके साथ दोहों और सोरठों का भी प्रयोग है। __सुदर्शनचरित की रचना से यह प्रतिभासित होता है कि उनकी रचनाएँ सहज हैं, प्रयत्नसाध्य नहीं हैं। भावों के अनुकूल जो शब्द उद्गीर्ण हुए, उन्हें भी प्रयुक्त किया गया है। भौतिक सुखों की नश्वरता का चित्रण करते हुए उन्होंने कितने सरल शब्दों में कहा है तीन काल नां सुख देवां तणा, मेला किज कुल । तेहना अनन्त वर्ग बधारिए, नहीं सिद्ध सुखां के तुल ॥ ते पिण सुख छै शाश्वता, तेहनो आवे नहीं पार । संसार ना सुख स्थिर नहीं, जातां ना लागे बार ॥ संसार ना सुख स्थिर नहीं, जैसी आभानी छांय । विणसतां बार लागे नहीं, जैसी कायर नी बांह ।। किंपाक फल छै मनोहर, मीठो जेहनो स्वाद। ज्यों विषय सुख जाणजो, परगम्या करै खराब ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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