Book Title: Rajasthani Kavya Parampara me Sudarshan Charit Author(s): Gulabchandra Maharaj Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 9
________________ राजस्थानी काव्य परम्परा में सुदर्शन चरित ही दिया । वह अपना शरीर क्षत-विक्षत कर लेती है। बाल नोच लेता है । वस्त्र फाड़ लेती है, तथा सहमी हुई जोरों से रोकर पहरेदारों को आवाज देती हुई कहती है ओ सेठ सुदर्शन पापियो, तिण मुझसूं कियो अतिजोर । ओ किण मारग होय आवियो, बले बोली वचन कठोर ॥ म्हारो अंग बिलूरी कस तोड़ने, फाड्या महामंद नीर हिवे घणी बात के ही कहूँ, मैं राख्यो शील सधीर ॥ राय ने ज्यू करे सेठनी जी घात । ए बात कहो सहु बने अर्ज न माने केहनी, जेवन करे विण मात ॥ राजा ने जब सेवकों के द्वारा कथित दुर्घटना का वृत्तान्त सुना तो सहसा ही आपे से बाहर हो गया और बिना कुछ विचार किए शूली की सजा सुना दी। प्राचीन दण्ड व्यवस्था में शूली की सजा बेरहमी और दर्दनाक मौत की निशानी होती थी। जहां जीवित मनुष्य के तिल-तिलकर मरने की कल्पना से ही दिल कांप उठता है, यहाँ सजा भुगतने वालों को कितनी भयंकर पीड़ा होती होगी, इसकी कल्पना जड़ लेखनी के द्वारा नहीं बताई जा सकती । सुदर्शन के मृत्यु दण्ड का दुःखद संवाद भाषा वर्गणा के पुद्गलों के समान चारों ओर फैल गया। शहर के विशिष्ट नागरिकों ने विचार किया कि सुदर्शन पूर्ण निर्दोष है। यह घटना पूर्व कृत कर्मों का ही दुष्परिणाम है। हमारा राजा के पास जाकर अनुनयपूर्वक सुदर्शन की निर्दोषता प्रमाणित करें। यद्यपि राजा का एकतन्त्र जन-भावना की कद्र तो राजा का कर्त्तव्य होगा ही । कर्त्तव्य है कि हम राज्य है, फिर भी नागरिकों का एक शिष्ट मण्डल राजा के पास जाता है और दृढ़ विश्वास की अभिव्यक्ति के साथ निवेदन करता है— पूर्व यकी पश्चिम दिले, कदाच ऊगे भाण । तो पिण सेठ शील थी न चले, जो जावे निज प्राण ॥ कदा मेरू चलायो पिण चले, कदा शशि मूके अंगार । तो पिया सेठजी शीत थी, चले नहीं लिगार ॥ कदा गंगा ही गल्टी बहे, सायर लोपे कार । तो ही सेठ शील थी नहीं चले, व्रत पाले एकधार ॥ Jain Education International ५६७ एकतन्त्र की सबसे बड़ी असफलता वहाँ है, जहाँ जन-भावना का उचित समादर नहीं है । जन-भावना के उचित पहलुओं को दृष्टिगत रखते हुए नीर-क्षीर विवेक संयुक्त एकाधिपत्य स्यात् जनतन्त्र की अपेक्षा अधिक सफल भी हो सकता है । राजा ने जन-भावना को आदर नहीं दिया। सच्चे को झूठा ठहरा कर कहा झूठा ने साचो करो, आ कहां की रीति । ये घर जावो आपने नहीं तो होती फजीत || राजा के शब्दों से महसूस होता है कि उस समय एकतन्त्र में एक प्रकार का उन्माद घुस गया था। शास्ता के लिए हर स्थिति में सन्तुलन आवश्यक होता है। जन भावना के अनुरूप कार्य समय पर न भी हो किन्तु उसे समझने में तो कोई आपत्ति होनी ही नहीं चाहिए । किन्तु यह भी एक तथ्य है कि प्रायः सत्ता प्राप्ति के साथ-साथ अधिकारों का थोड़ा बहुत उन्माद आ ही जाता है । जन-भावना को न समझने वाला शासक कभी लोकप्रियता नहीं पा सकता । सुदर्शन चरित का यह स्थल तत्कालीन राज्य व्यवस्था और दण्ड नीति पर प्रकाश डालता है । वितथ अभ्याख्यान और शूली की सजा मिलने पर भी सुदर्शन के हृदय में रानी और राजा के प्रति किसी प्रकार का विद्वेष जागृत नहीं हुआ। उसने अपने बचाव का प्रयत्न भी नहीं किया। यदि कोई अपर व्यक्ति वहाँ होता For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.Page Navigation
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