Book Title: Rajasthani Kavya Parampara me Sudarshan Charit
Author(s): Gulabchandra Maharaj
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
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राजस्थानी काव्य परम्परा में सुदर्शन चरित
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के मैं दोपद चोपद छेदिया, के छेदी वनराय । के भात-पाणी किणरा मैं रूधिया, के मैं दीधी त्याने अन्तराय ।। के मैं साधु-सती संतापिया, के मैं दीया कुपात्र-दान ।
के मैं शील भाग्या निज पारका, के मैं साधाँ रो कियो अपमान ।। सुदर्शन का यह आध्यात्मिक भावना से ओत-प्रोत चिन्तन-“संपिक्खए अप्पगमप्पएणं" का आदर्श उपस्थित करता है। पर की भूल और दोष द्वारा सम्प्राप्त दु:ख को स्वकृत कर्मफल मानकर आत्मतोष करना ही विज्ञता का लक्षण है।
शूली का सिंहासन बना हुआ देखकर लोक-निन्दा के भय से अभया आत्महत्या कर लेती है । आत्म-हत्या धार्मिक एवं सामाजिक दोनों दृष्टियों से ही गर्हणीय है। आवेश के वश में मानव का कृत्याकृत्य विवेक लुप्त हो जाता है। वह इहलौकिक आपदाओं से मुक्त होने को आतुर हो उठता है, किन्तु क्या यह निश्चित है कि उसे परलोक में मनोनुकूल संयोग ही मिलेगा? धर्म-दृष्टि से आत्म-हत्या एक जघन्य अपराध है और कायरता का प्रतीक है । उसका प्रतिफल भी भोगना पड़ता है। अभया ने आत्म-हत्या की । इहलोक से मुक्त होकर पाटलीपुत्र के श्मशान में व्यन्तर योनि में उत्पन्न हुई।
सुदर्शन अपने पूर्व निर्धारित अभिग्रह से साधुत्व स्वीकार करता है । साधक जीवन के विषम परीषहों को समभाव से सहन करता हुआ सतत अध्यात्म भावना में रमण करता है। जीवन की एक कड़ी कसौटी पर खरा उतरा, किन्तु अभी कुछ और परीक्षा अवशिष्ट है। मुक्ति मार्ग के बीच कुछ बीहड़ पहाड़ियों को और पार करना होगा। वह एक महीने की घोर तपस्या में रत गुरु की आज्ञा से एकाकी विहरण करता हुआ क्रमशः पाटलीपुत्र में आया । पाटलिपुत्र की सुप्रसिद्ध वेश्या देवदत्ता ने तीन दिन तक अपने घर में रखकर विविध कुचेष्टाओं से सुदर्शन को व्रतभ्रष्ट करने का प्रयास किया, किन्तु सुदर्शन इस काजल की कोठरी से भी बिल्कुल बेदाग बच आया। नियम और लक्ष्य के प्रति दृढ़ विश्वास ही उस अदम्य शक्ति का स्रोत प्रवाहित करता है जिसके प्रभाव से व्यक्ति कड़े से कड़े परीक्षण में भी पूर्णांक प्राप्त करता है।
वेश्या के जाल से मुक्त होकर सुदर्शन ने आत्म-समाधि का निर्णय किया । वह श्मशान भूमि में जाकर पादपोपगमन अनशन स्वीकार करता है, किन्तु श्रेय' प्राप्ति में अनेक विघ्न भी उपस्थित होते हैं । अभया रानी जो इसी स्थान पर राक्षसी के रूप में उत्पन्न हुई थी, विविध वैक्रिय रूप बनाकर उसे रिझाने और व्रत-भ्रष्ट करने का असफल प्रयास करने लगी। श्रृंगार कुचेष्टाओं से जब सुदर्शन चलित नहीं हुआ तब वह अत्यन्त कुपित हो उठी और नाना प्रकार के दैहिक कष्ट देने लगी। सुदर्शन ने किसी प्रकार का प्रतिकार नहीं किया और शान्त रहा । शील सहायक देव उपस्थित हुए और राक्षसी के कष्ट को निराकृत किया। सुदर्शन के साम्य-योग की आराधना में भावों का उत्कर्ष ऊर्ध्वगामी हो रहा था। उसे राक्षसी पर द्वेष और कष्ट निवारक देवों पर किसी प्रकार का राग नहीं था। राग-द्वेषरहित इस पुण्य अवस्था में सुदर्शन को कैवल्य-प्राप्ति हुई। देवों ने कैवल्य महोत्सव मनाया । सुदर्शन ने समता-धर्म का प्रतिबोध दिया । कैवल्य महिमा देखकर राक्षसी का हृदय-परिवर्तन हुआ। उसे अपने कृत्यों के प्रति तीव्र लज्जा की अनुभूति हुई। पश्चात्ताप की अग्नि में जलती हुई अपने पूर्व-कर्मों के लिए मुनि से पवित्र हृदय से क्षमा-याचना करने लगी
अपराध खमावे देवी आपरो, थे खमज्यो मोटा मुनिराय । हुँ पापण छू मोटकी, मैं कीधो अत्यन्त अन्याय ।। मैं अनेक उपसर्ग दिया आपने, कीधो छै पाप अघोर ।
तिण पाप थकी किम छूटसू, खमाऊँ बारू बार कर जोर ॥ यह प्रसंग क्षमा और समता की विजय-गाथा है। प्रतिपक्षी के हृदय-यरिवर्तन का एक बेजोड़ उदाहरण है। हिसा का अहिंसात्मक प्रतिकार किस प्रकार हो इसका सुन्दर निदर्शन है । धर्म का आधार हृदय परिवर्तन है, बल
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