Book Title: Rajasthani Kavya Parampara me Sudarshan Charit
Author(s): Gulabchandra Maharaj
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
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प्रयोग और शक्ति नहीं । सुदर्शन ने अपनी अद्भुत क्षमता के द्वारा राक्षसी का हृदय-परिवर्तन कर दिया, यह इसका सजीव प्रतीक है। इस प्रकार महान् साधक सुदर्शन जीवन की अनेक दुस्तीर्ण परीक्षाओं में सम्यक्तया उत्तीर्ण होकर अपनी आत्म-साधना में उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ क्षमा और समता का महान् आदर्श उपस्थित करके हृदय-परिवर्तन के माध्यम से एक पापात्मा को प्रतिबोध देकर मुक्ति के अजरामर शिखर पर आरूढ़ हुआ।
सुदर्शन चरित में उपन्यस्त कथा-सूत्र स्वयं ही रोचक और हृदयग्राही है। आचार्य भिक्ष की लोकजीवन लेखनी का आश्रय पाकर वह और भी निखार पा गया है। सुदर्शन चरित का रचनाकाल आचार्य भिक्ष की साहित्य और अनुभव-परिष्कृति का उत्कर्ष काल था। उस समय तक वे अपने जीवन के ६७ वसन्त देख चुके थे। जैसा कि उनकी लेखनी से परिज्ञात है
एक चरित कियो सुदर्शन सेठ रो, नाथद्वारे मेवाड़ मंझार ।
संवत् अठारे पच्चासे समे, काती सुद पांचम शुक्रवार । आचार्य भिक्षु के महान् अनुभव, प्रखर साहित्यिक प्रतिभा और जीवन-साधना के मौलिक सूत्रों का समन्वित दर्शन सूदर्शन चरित में होता है। विविध उपमा, अलंकार, कल्पना और भावभरे चित्रणों के संयोग से लोकगीतों का आश्रय पाकर यह सहज ही जन-भोग्य काव्य बन गया है । इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह काव्य श्रेयोऽभिमुख मानस के लिए आत्मतृति की खुराक देता है तथा जीवन-पथ में भटके हुए प्राणी को सही दिशादर्शन देता है।
प्रकृति-चित्रण-अन्य गेय काव्यों की तरह सुदर्शन चरित में प्रकृति चित्रण भी यथारूप हुआ है। वसन्त ऋतु के वर्णन में आचार्य भिक्षु के शब्द-शिल्प का सहारा पाकर ऐसा प्रतीत होता है मानों प्रकृति का कण-कण प्रफुल्लित होकर स्वयं ही बोल रहा है
आयो आयो हे सखी कहीजै मास वसन्त, ते ऋतु लागे छे अति ही सुहामणी। सह नर-नारी हे सखी इणरित हुवे मयमत्त, त्याने रमण-खेलणनें छे रितु रलियामणी।। फूल्यो रहे सखी चम्पक मखो अधाम, फूल्या छे जाह जुही ने केतकी ।। फूल्या फूल्या हे सखी बले फूल गुलाब, बले फूल्या छे रुख केवड़ा तणा । नाहना मोटा हे सखी फलिया रुख सताब, ते फल फूल पानां कर ढलिया घणा ।। फूली फूली रहे सखी मोरी सहु वनराय, बले ओबां लगी मांजर रलियामणी । महक रही छै हे सखी तिण बागरे माय, तिण गन्ध सुगन्ध लागे सुहामणी ।। तिण ठामे हे सखी कोयल करे टूहूकार, बले मोर किंगार शब्द करे घणा । चकवां-चकवी हे शब्द करे श्रीकार, बले अनेक शब्द गमता पखियां तणा ॥
बसन्तु ऋतु में उद्यान का यह प्रसाद-गुण-संवलित-वर्णन वास्तव में सूक्ष्म प्रकृति-चित्रण का चमत्कार है।
यथार्थ लेखनी का चमत्कार
आचार्य भिक्षु स्पष्टवादी थे । वस्तु-स्थिति के निरूपण में उनकी लेखनी निर्भय होकर चली है। उन्होंने अनुभूत सत्य का दर्शन प्रस्तुत किया है। यह भी एक तथ्य है कि सत्य सदा कटु होता है। आचार्य भिक्षु ने अपने जीवन का सत्य की उपासना में ही उत्सर्ग किया था। अत: उनकी लेखनी में सत्य का परिपाक परिलक्षित होता है। मानवप्रकृति के कटु सत्यों का उद्घाटन करने में उनकी लेखनी ने जिस निर्भीकता का परिचय दिया है, उससे वह सामान्य बुद्धि के लिए कटु हो सकती है, किन्तु उसकी सत्यानुभूति निर्विकल्प है। उन्होंने अपनी अनुभूतियों को ज्यों का त्यों रख दिया, फिर भी उनका विवेक सदा जागृत रहा। उन्होंने कुलटा नारी का बहुत ही सुन्दर भाव-चित्र प्रस्तुत किया है
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