Book Title: Rajasthani Kavya Parampara me Sudarshan Charit
Author(s): Gulabchandra Maharaj
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 14
________________ "५७२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.......................................... आचार्य भिक्षु के काव्य में एक ओर जहाँ सरलता है, वहाँ गहनता भी है पर उनके निरूपण वैशिष्ट्य के कारण गहनता सरलता में परिवर्तित हो गई। काव्य-सृजन में लोक-जनीन उक्तियों और उपमाओं का प्रचुर प्रयोग हुआ है। उपरोक्त वर्णन में इसका सम्यग् दिग्दर्शन होता है । कुलटा स्त्री के चरित्र के बहुत ही सुन्दर चित्र खींचते हुए उन्होंने उसे काजल कोटड़ी, बन बेलड़ी, फाटा कानां री जोगणी, मदन तलावड़ी, जलोक आदि विशेषण दिए हैं, जो उनकी काव्यविशिष्टता का प्रतिभास कराते हैं । जहाँ जैसा औचित्य था उन्होंने वैसा ही चित्रण किया। इसलिए यह भी आवश्यक होता है कि उनके हार्द को आत्मसात करने के लिए उनके द्वारा दिए गए विवेचन की पृष्ठभूमि को यथावत् जाना जाए। उपर्युक्त पद्यों से सहसा यह नहीं समझ लेना चाहिए कि नारी-जाति के प्रति उनका अवहेलनापूर्ण दृष्टिकोण था। ये विशेषण उनके द्वारा वहाँ प्रयुक्त हैं, जहां उन्होंने कुसती नारी का विवेचन किया है-- कुसत्यां में अवगुण घणां, पूरा कह्या न जाय । पिण थोड़ा सा प्रगट करू, ते सुणज्यो चित्त ल्याय ।। अथवा "नहीं सरीखी सगली नार" अन्यत्र उनके द्वारा प्रयुक्त यह पद स्पष्टतया व्यक्त करता है कि नारीमात्र के लिए उक्त अभिमत नहीं था। उन्होंने सती नारी के प्रति तो आदरपूर्ण शब्दों में कहा कि सती सोलह गुण की खान होती है, सती सीता के तुल्य होती है, जिसका वर्णन जिनेश्वरदेव भी करते हैं। सुदर्शन चरित्र में दर्शन तत्त्व-दर्शन की सत्ता काव्य को अस्वीकार्य नहीं है। किन्तु उसकी अस्पष्टता काव्य को निष्प्राण बना देती है। हर काव्य में उसका यथोचित पुट रहता है । सुदर्शन चरित्र एक कथा-काव्य है। सूदर्शन की जीवन-घटनाओं पर गुंफित हुआ यह काव्य जहाँ एक ओर विविध रागिनियों, लोकोक्तियों और उपमाओं से चित्त को आह्लादित करता है, वहाँ दूसरी ओर दर्शन-प्रेमी पाठकों को दार्शनिक खुराक भी प्रदान करता है। कर्मवाद जैनदर्शन का एक मौलिक तत्त्व है । वह मानव-सृष्टि को किसी एकाधिपत्य की कठपुतली न मानकर कर्म-सिद्धान्त प्रस्तुत करता है। वह प्राणी के सुख-दुःख, ज्ञान-अज्ञान, निर्धनता-धनता आदि के लिए कर्म वैचित्र्य का प्रतिफल स्वीकार करता है। यदि एक ही व्यक्ति में कर्तृत्व का आरोपण किया जाए तो उसकी वृत्तियों में पक्षपात और विभेद क्यों रहता है ? ईश्वर की सत्ता को सृष्टि का कर्ता हर्ता स्वीकार करने से यह पक्षपात का राग-द्वेष क्या उसकी वीतरागता में बाधक नहीं बनता? इन सब दृष्टियों से हमें कर्मवाद का आश्रय लेना होगा । कर्मवाद की सत्ता स्वीकार कर लेने से उक्त समस्त प्रश्न स्वतः ही समाहित हो जाएंगे। आचार्य भिक्ष ने इसी कर्मवाद की विचित्रत को अत्यन्त सहज एवं सरल शब्दों में अभिव्यक्त किया है एक नर पंडित प्रवीण, एकण ने आखर ना चढ़े। एक नर मूर्ख दीन, भाग बिना भटकत फिरे।। एक-एकरे भरया भण्डार, रिद्ध सम्पत्ति घर में घणी। एकण रे नहीं अन्न लिगार, दीधा सोई पाइए॥ एकण रे मूषाण अनेक, गहणा वस्त्र नितनवा । एकण रे नहीं एक, वस्त्र बिना नागा फिरे ।। एक नर जीमें कूर, सीरा पूरी ने लापसी । एक बूके बूकस बूर, भीख माँगत घर-घर फिरै ।। एक नर पोड़े खाट, सेज बिछाई ऊपरे । एक नर जोमे हाट, आदर मान पावे नहीं । एक नर होवे असवार, चढ़े हस्ती ने पालखी। एक चले सिर भार, गाम गाम हिड़तो फिरै ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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