Book Title: Rajasthani Kavya Parampara me Sudarshan Charit Author(s): Gulabchandra Maharaj Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 1
________________ ++++ ++++0+0+0+0+0+0 राजस्थानी काव्य परम्परा में सुदर्शन चरित मुनि श्री गुलाबचन्द्र 'निर्मोही' युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी के शिष्य है। साहित्य एकादमी ने इसे एक भारतीय भाषाओं में राजस्थानी भाषा का स्वतन्त्र और मौलिक स्थान - स्वतन्त्र भाषा के रूप में मान्यता देकर इस तथ्य को प्रमाणित भी कर दिया है। शताब्दियों पूर्व इस भाषा का जो साहित्य-स्रोत प्रवाहित हुआ, वह क्रमशः विस्तार पाकर अनेक आयामों को अपने में समेटे हुए निरन्तर गतिशील है । भारतीय वाङ्मय में से राजस्थानी साहित्य को पृथक् कर दिया जाए तो एक रिक्तता की अनुभूति होगी । राजस्थानी भाषा की अनेक अन्तर्भाषाएँ हैं । मारवाड़ी, मेवाड़ी, जयपुरी, बीकानेरी, गाढ़वाली, हाडौती, भोली आदि उनमें प्रमुख हैं। इन भाषाओं में प्रचुर साहित्य भी लिखा गया है। वह समग्र साहित्य राजस्थानी भाषा भी विधाओं का साहित्य कहा जाता है। राजस्थानी साहित्य जीवन-चरित, दर्शन, गणित, ज्योतिष, न्याय, लोकगीत, लोककथा, तथा लोकमानस का स्पर्श करने वाले विभिन्न पक्षों पर लिखा गया है। अन्य भाषाओं की तरह राजस्थानी भाषा में सन्त-साहित्य भी पर्याप्त मात्रा में है । प्राचीन काल में राजस्थानी भाषा का कोई व्याकरण न होने के कारण अब तक उसका एक सर्वसम्मत रूप नहीं है। काव्यकारों ने जिस प्रकार भाषा प्रयोग किया, वही प्रमाण माना जाने लगा । Jain Education International तेरापंथ के आद्य प्रवर्तक आचार्य भिक्षु राजस्थानी भाषा के एक उद्भट कवि हुए हैं। साधना के विषम पथ पर सतत प्रसारणशील रहते हुए उन्होंने जीवनकाल में ३८ हजार पद्य प्रमाण साहित्य की रचना की। आचार्य भिक्षु का कवित्व अभ्यास - साध्य नहीं था। वह नैसर्गिक था । कवि बनाये नहीं जाते। वे स्वतः बनते हैं । आचार्य भिक्षु इसके प्रतीक कहे जा सकते हैं। उन्होंने किसी काव्य-ग्रन्थ या अलंकार - शास्त्र का अध्ययन करके कवित्व का प्रशिक्षण नहीं पाया था । हृदय में भावों की उद्वेलना हुई, आत्मसंगीत का उद्गान हुआ और वे शब्दों का संबल पाकर मूर्तरूप में आविर्भूत हो गए । यही उनकी काव्य कला का रहस्य था । केवल शब्द और अर्थ ही काव्य के उपादान नहीं हैं। वे तो मात्र उसके कलेवर हैं । काव्य की आत्मा तो रस है । इसी के कारण मानव का काव्य के प्रति आकर्षण उत्पन्न होता है । आचार्य भिक्षु के काव्य-ग्रन्थों का सूक्ष्मेक्षण से पारायण करने पर हम पायेंगे कि उनकी पदावलियाँ काव्योचित रस से परिपूरित हैं । उनमें अन्तःश्रेयस् की प्रेरणा देने वाला निर्वेद - निर्झर सतत प्रवहमान है । अपने सहज कवित्व के द्वारा त्रिकाल सम्मत ध्रुवसत्य को जन-जन तक पहुँचाना ही उनको अभिप्रेत था न कि कवित्व प्रस्थापन के द्वारा कीर्ति अर्जन करना इसीलिए कविता उन्होंने की नहीं । वह स्वतः बन पड़ी और अत्यन्त उत्कृष्ट बन पड़ी। उन्होंने अपनी कविताओं में उन दिनों प्रचलित राजस्थानी लोकगीतों तथा लोकजनीन सरल एवं बोधगम्य शब्दों का ही विशेषतः प्रयोग किया है, जिससे वह सहज ही जनभोग्य बन सके। जिस उदात भावना ने सन्त तुलसीदासजी को अपने इष्टदेव का चरित्र ब्राह्मणों के निरन्तर विरोध के भी अवधी में लिखने को प्रेरित किया, उसी ने आचार्यश्री मिक्षु को भी जीवन के शाश्वत सत्यों को जनबावजूद जीवन तक प्रसारित करने हेतु जन-भाषा का आश्रय लेने की प्रेरणा दी। महान् कवि परिनिष्ठित भाषाओं में नहीं, अपरिष्कृत जन-भाषा में रचना कर उसे समृद्ध बनाते हैं । अतः वे काव्य-भाषा के भी स्रष्टा माने जाते हैं । For Private & Personal Use Only -0 ·0 ० www.jainelibrary.org.Page Navigation
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