Book Title: Rajasthani Kavya Parampara me Sudarshan Charit
Author(s): Gulabchandra Maharaj
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 10
________________ । ५६८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन खण्ड .......................................... ............................... तो अपने बचाव के लिए न जाने कितने यत्न करता । अपनी निर्दोषता प्रमाणित करने के लिए न जाने कितने प्रमाण प्रस्तुत करता । किन्तु सुदर्शन के हृदय में सत्य के प्रति अखण्ड श्रद्धा थी। इसी दृढ़ विश्वास के कारण उसे अपनी निर्दोषता प्रमाणित करने की कोई आवश्यकता नहीं समझी। संसार में सबसे अधिक निकट स्नेह-सूत्र पति-पत्नी के बीच होता है। किन्तु सजा घोषित होने के बाद भी अपनी पत्नी मनोरमा के मिलन-प्रसंग में उसे सान्त्वना देता हुआ, राजा-रानी के प्रति किसी प्रकार की शिकायत न करता हुआ यही कहता है सेठ कहे सुण मनोरमा नारी, पूर्व पाप कियो मैं भारी । ते पाप उदे आयो अब म्हारो, भुगत्यां बिन नहीं छुटकारो । इण बातरो किणने नहीं दीजे दोषो, वले किणसूइ न करणो रोषो । तुम्हें चिन्ता मकरो म्हारी लिगारो, म्हारो न हुवे मूल बिगारो॥ सुदर्शन का कथन हृदय की ऋजुता और समता को प्रकट करता है। एक आदर्श एवं धर्म-निष्ठ व्यक्ति की धीरता और गम्भीरता बहुत ही सम्यक् रूपेण परिलक्षित होती है। प्रतिकूल परिस्थिति को कर्मजन्य प्रतिफल मानकर समता सहन करना वास्तव में वैराग्य और सत्यनिष्ठा का चरम उत्कर्ष हैं । पति के महान् आदर्श की प्रतिच्छाया उसकी पत्नी में भी दृष्टिगोचर होती है। उस विषम स्थिति में मनोरमा ने सुदर्शन को जिन शब्दों में प्रत्युत्तर दिया है, वह वस्तुत: ही नारी समाज के गर्वोन्नत भाल का प्रतिभू है। मनोरमा का कथन बहुत ही हृदयग्राही बन पड़ा है सेठ ने पिण सन्तोषे मनोरमा नारी। थे मत किज्यो चिन्ता लिगारी॥ केवली ए भाव दिठा जिम हुसी। थे पिण राखज्यो घणी खुशी ।। दुख हुवे के पूर्व संचित कर्मा । थे पिण गाढा राखज्यो जिनधर्मा ॥ संकट के समय पति को इस प्रकार दृढ़ साहस बँधाना, आदर्श नारी का ही कर्तव्य हो सकता है। मनोरमा के शब्दों में सत्य एवं शीलनिष्ठा नारी की अन्तरात्म' बोल रही थी। इसमें सत्य और शील का वह अद्भुत ओज भरा है, जिसके श्रवण मात्र से हृदय में त्याग और बलिदान की भावना जागृत होती है। मनोरमा की वाणी से यह सिद्ध होता है कि नारी संकट के समय सिर्फ रोना ही नहीं जानती, वह अपने पति के दुःख में हाथ बंटाकर सहचरी का अनुपम आदर्श उपस्थित कर सकती है। मनोरमा के हृदयोद्गार सचमुच ही उसके दृढ़ धार्मिक विश्वास और महान धैर्य के सूचक हैं। सुदर्शन को शूली के नीचे खड़ा कर दिया गया। जल्लाद राजा के आदेश की प्रतीक्षा में है। काल का कूर दृश्य उपस्थित हो रहा है । मौत को अति सन्निकट जानकर सुदर्शन का हृदय किंचित् भी विचलित नहीं हुआ। राजा और रानी के प्रति मन में जरा भी द्वेष नहीं है। इस भीषण संकट को भी अपने कर्मों का प्रतिफल समझकर वह मन में सोचता है - कर्म र बलियो जग में को नहीं, बिन भुगत्यां मुगत न जाय । जे जे कर्म बान्ध्या इण जीवड़े, ते अवश्य उदे हवे आय ।। ज्य' मैं पिण कर्म बांध्या भव पाछले, ते उदे हुवा छै आय । पिण याद न आवै कर्म किया तिक, एहवो ज्ञान नहीं मों मांय ।। के मैं चाडी खाधी चोंतो, दिया अणहुंता आल । ते आल अणहुँतो शिर माहरे, निज अवगुण रह्यो छ निहाल । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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