Book Title: Rajasthan Bhasha Puratattva
Author(s): Udaysinh Bhatnagar
Publisher: Z_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf

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Page 13
________________ राजस्थान भाषा पुरातत्व १५१ है क्योंकि यहाँ के लोग अपने को प्रमिलियन (Tramilian) या तरमीलियन कहते थे स्पष्ट है उनमें तीन जातियों का समुदाय हो अथवा इस प्रान्त में धाने के पश्चात् लीसियन, केटन और यहाँ के निवासी मिलयन, ये तीनों मिलकर त्रिमिलियन कहे जाने लगे हों। इसी प्रकार द्रमिल का सम्बन्ध क्रेटन और मिलयन के प्रथम मिश्रण के समय हुआ होगा । अब हमें इस दृष्टि से भील और द्रविड़ सम्बन्ध पर विचार कर लेना चाहिये । भील लोग संभवतः इन्हीं मिलयन लोगों के समुदाय के हैं जो क्रेटन के मिश्रण के पूर्व और पश्चात् भी अलग-अलग जुटों में भारत में धाते रहे और समुद्र के किनारे-किनारे होते हुए मलय प्रदेश की ओर बढ़ गये और वहां से पूर्वी द्वीपसमूहों में सामोध (Samoa) द्वीप तक फैल गये। लीसिया में ये मिलयन लोग सम्भवतः काकेशिया की ओर से आये तब वे सोध्यमी (Solymi) कहलाते थे। भारत में घाते समय ये लोग बाड़ी, बीड, मगरा आदि शब्द एशिया माइनर से लेकर भावे और वहाँ के रीतिरिवाजों को भी अपने साथ लाये। इनके बाद में आने वाले मिल-द्रमिल (Tamil Damil) का पथ प्रदर्शन इन्होंने ही किया । ये लोग सब एक साथ न आकर क्रमश: अलग-अलग आये होंगे पहले मिल, फिर मिल और अन्त में मिल पहाड़ के अर्थ में 'मगरा' और 'घर' शब्द इन्हीं से सम्बन्धित है और उतने ही प्राचीन हैं, जितने थे। इन्हीं में से कई दल पूर्व में और जिन मैदानों में बसे वे 'मगहर', 'मगध' आदि नामों से प्रसिद्ध हुए । आगे चलकर अरकान के पहाड़ी प्रान्त में रहने वाली 'मग' जाति इन्हीं से सम्बन्ध रखती है । इधर मिल ( मिलयन) जो अरकान से दक्षिण में बढ़े उनके नाम से मलयन, मलय आदि नाम पड़े । उससे आगे पूर्वी देशों में जो सबसे पहला दल पहुंचा वह सोल्यमी ( Solymi) नाम अपने साथ ले गया होगा; जो धीरे धीरे इन द्वीपों में फैल गया । इन्हीं 'मिल' लोगों का एक दल मिल-द्रमिल के आगे-पीछे भारत के दक्षिण में पहुंचा, जो मलय प्रदेश कहा जाता और जिनकी भाषा मलयाली है। - अब इस धारणा को भी हम विस्तारपूर्वक देख लें। भीलों को श्राग्नेयवंशी मानने में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि प्राग्नेय लोगों में पूजा और प्राराधना जैसी कोई भावना नहीं थी जबकि भीलों में आदि काल से 'लकुल' (लेक-लिंग) की पूजा वर्त्तमान थी, जिसका विकास द्रविड़ - मिश्रण से शिवलिंग पूजा के रूप में हुआ। शिवशक्ति पूजा की भावना एशिया माइनर की सभ्यता से समानता रखती है जिसका प्रारम्भिक रूप 'मिल' (मिलयन) लोग भारत में लेकर आये और उसका परिवर्तित रूप कई वर्षों पीछे द्रविड़ लोगों ने लाकर दिया। शिव को पशुपति और शक्ति को उमा कहा गया है। एशिया माइनर के देवी-देवताओं के नामों में इन नामों से साम्य रखने वाले नाम 'तेसुप- हेपित' (Tesup-Hepit = पशुपति) और 'मा प्रत्तिस् ' Ma--Attis=उमा-शक्तिः ) हैं । पशुपति और उमा शक्ति की कल्पना इसी श्राधार साम्य पर मानी गई है २५ । ऋषभ तथा उसी से विकसित नाम ऋषभदेव भी इन्हीं से सम्बन्ध रखता है । उसी प्रकार प्रनत देवता की पूजा से भी इनका सम्बन्ध रहा है। इनकी राजस्थान में पूजा भी होती है और इन विषयों की (२५) विशेष के लिये देखो : "Protso-types of Shiva in Western Asia. "-by Dr. Hema Chandra Ray Choudhuri-in the D.R. Bhandarkar volume pp, 301-304 1940 of the Indian Research Institute, Calcutta. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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