________________
राजस्थान भाषा पुरातत्व
१६१
इसी लेख में अन्य कई रूप हैं जो प्राकृत प्रभाव से मुक्त हैं; जैसे- 'अस्ति' के स्थान पर 'अत्ति' न होकर 'अस्ति' का ही प्रयोग, जो 'सकार' के प्रबल आग्रह और अस्तित्व का प्रमाण है । इससे एक और तथ्य निकल आता है कि इस बोली में मूर्द्धन्य 'ष् ' का प्रभाव था । शहबाजगढ़ी और मानसेरा की लिपियों में जहाँ 'घ' का प्रयोग हुआ है वहाँ ऐसे स्थान पर इसमें 'स्' ही मिलता है-
गिरनार
शहबाजगढ़ी मानसेरा
संस्कृत
सर्वे पासंदा वसेबू ति
सर्व प्रखंड बसे
इसी प्रकार तालव्य श्' का भी प्रभाव दीख पड़ता है और उसके स्थान पर भी दत्य 'स्' का ही प्रयोग मिलता है-
गिरनार
शहबाजगढ़ी
मानसेरा
संस्कृत
स पपड वसेयु
सर्वे पाषंडाः वसेयु इति 135
Jain Education International
-सयम
-सयमं च भावसुधि भवधि -सयम भवशुधि च -सयमं (च) भावशुद्धि च
(१) संयुक्त व्यंजन की अस्वीकृति
(क) च्च और च्छ
इससे यह स्पष्ट है कि इस प्रान्त में प्राकृत के प्रभाव के समय स्थानीय बोलियों की प्रवृत्तियाँ अत्यधिक प्रबल थीं। कुछ अन्य प्रौर उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जायगा
द्ध
(ख) पत (ग) (२) ऋ के स्थान पर व्यञ्जन की (क) क् के साथ 'अ' (ख) द के साथ 'इ'
च इछति ।
च इछंति ।
इछति । इच्छति ॥ 3 &
उचावचछंदो - सं० उच्चावच्छन्दाः
(हिन्दी - ॐच नीच विचार से ) उचावचरागो-सं० उच्चावचरागाः
( हिन्दी ऊंच नीच राग के) --सं० दृढभीकता -- सं० भाव शुद्धिता
: हिढभतिता भाव सुधिता
प्रवृत्ति के अनुसार 'अ', 'इ' और 'उ' कतंत्रता सं० कृतज्ञता दिवमतितासं० हडभीकता एनारिसानि सं० एतादृशानि
--
-
(ग) पं के साथ 'उ' धमपरिछा सं० धर्मपरिपृच्छा
३८ - देखो -- नागरी प्रचारिणी पत्रिका में प्रोभा- 'प्रशोक की धर्म लिपियाँ' । ३६- 'श्' तथा '' के स्थान पर 'सू' के उच्चारण के अन्य उदाहरण : दसाभिसितो -- सं० दशवर्षाभिसिक्तः मानुसस्टी सं० धर्मानुशस्ति
For Private & Personal Use Only
―1
www.jainelibrary.org