Book Title: Rajasthan Bhasha Puratattva
Author(s): Udaysinh Bhatnagar
Publisher: Z_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf

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Page 27
________________ राजस्थान भाषा पुरातत्व था । इस समय मध्य प्रदेश के दो रूप हो गये--पहला शौरसेनी, जो मध्य देश की प्रधान भाषा थी, और दूसरा आवन्ती जो मालव की बोली के रूप में विकसित हुई। प्राच्य के इस समय तीन भेद हो गये-मागधी, अर्ध मागधी और प्राच्या (बंग देश तक)। राजस्थान का उस समय कोई स्वतन्त्र इकाई के रूप में विकास नहीं हुआ था। उसमें छोटे छोटे गणराज्य थे। परन्तु दाक्षिणात्या से गुजरात और दक्षिण राजस्थान की बोलियों से ही अर्थ है । दक्षिणात्या से दक्षिण की द्रविड़ भाषा से सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि उसने आर्यावर्त की भाषाओं का ही उल्लेख किया है । यहाँ तक कि आर्यावर्त को अन्य विभाषाओं के अन्तर्गत भी उसने द्रविड़ का उल्लेख किया है : शबराभीर चाण्डाल सचर द्रविडोडजाः । हीना वनेचराणां च विभाषा नाटके स्मृताः ॥ इस प्रकार शबर, आभीर, चाण्डाल, चर, द्रविड, अोड़ (प्रोड़) और हीन वनचर जातियों की बोलियों की सूचना हमें प्राप्त होती है। इसमें सभी जातियाँ राजस्थान में पायी जाती हैं। इनके बीच द्रविड का उल्लेख होने से उपयुक्त भील-द्रविड सम्पर्क सम्बन्ध के तथ्य की पुष्टि हो जाती है। उसके अनुसार शवरों के अतिरिक्त व्याध और कोयला बनाने वाली जातियाँ, लकड़ी के यन्त्रों पर जीविकोपार्जन करने वाले सुथार (बढ़ई) खाती (काष्टक यान्त्रिक) आदि शाबरी बोलते थे।४३ वनचरों के साथ इनका सम्बन्ध होने के कारण ये लोग इनकी बोली 'वानौकसी भी जानते थे । गाय, घोड़े, भेड़, बकरी और ऊंट चराने वाले (अभीर आदि) 'प्राभोरोक्ति' बोलते थे। शेष द्रविड़ आदि 'द्राविड़ी' बोलते थे।४४ इन प्रमुख जातियों का उल्लेख कर देने के पश्चात् उन अनार्य जातियों का भी उल्लेख कर दिया है जिनमें से अधिकतर जातियाँ राजस्थान में बसी हुई थीं। उस समय राजस्थान में छोटे छोटे गणराज्य स्थापित हो चुके थे, जिनकी यही प्राकृत मिश्रित 'देशभाषा' थी। सम्भवतः यही समय था जब आर्य प्रभाव राजस्थान पर स्पष्ट रूप में पूर्ण प्रसारित हो चुका था। उत्तर राजस्थान का बहुत बड़ा भाग बाह लोका से प्रभावित था। उत्तर पूर्व का भाग मत्स्य महाभारत के समय में ही आर्य प्रभाव में आ चुका था। इस समय तक पूर्वी राजस्थान का बहुत बड़ा भाग 'शौरसेनी' से प्रभावित था। यहां किसी 'राजन्य जनपद' (क्षत्रप-जनपदसी) का शासन था । दक्षिण राजस्थान में प्रार्य प्रभाव मालव की ओर से आया । ई० पू० ४३--शाबरी का कुछ राजस्थानी रूप : शाबर लोग मन्त्र फूकने आदि में बहुत प्रसिद्ध थे। इनके कुछ मन्त्र शारंगधर पद्धति में शारंगधर ने सुरक्षित किये थे। उनमें से सिंह से रक्षा करने का यह मन्त्र देखिये-- 'नन्दायरणु पुत्त सायरिऊ पहारु मोरी रक्षा । कुक्कर जिम पुंछी दुल्लावइ । उडहइ पुछी पडहइ मुहि । जाह रे जाह । आठ सांकला करि उर बंधाउं । बाध बाघिणि कऊं मुह बंधउ । कलियाखिरिण की दुहाई । महादेव की दुहाई । महादेव की पूजा पाई। टालहि जई प्राणिली। विष देहि ।' --नागरी प्रचारिणी पत्रिका : भाग २, अंक-१ में पृ० १७ पर 'गुलेरी' द्वारा प्रकाशित ४४--अङ्गारकाख्याधानां काष्ठयन्त्रो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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