________________
१७०
श्री उदयसिंह भटनागर
आरम्भ हो गये होंगे, जब अपभ्रंश के क्षेत्र में प्रान्तीय विशेषताएं अकुरित होने लगी थीं । इसका प्रमाण वि० सं० ८३५ में उद्योतनसूरि द्वारा रचित 'कुवलयमाला' कथा में संग्रहित प्रान्तीय रूपों से मिलता हैं । ५४ परन्तु राजस्थानी का अधिक स्पष्ट रूप जिनदत्तसूरि कृत 'उपदेस रसायनसार' में मिलता है । ५५
अपभ्रंश से राजस्थानी के स्वरूप विकास की प्रधान प्रवृत्ति है । अपभ्रंश के द्वित्वर्णवाले शब्दों की अस्वीकृति और उनके स्थान पर नव विकसित रूपों की स्थापना । यह प्रवृत्ति निम्नलिखित रूपों में पायी जाती है *
५४ – शौरसेन अपभ्रंश से प्रभावित क्षेत्र में विकसित इन रूपों का उल्लेख यहाँ किया जाता है-१. मध्यदेश -- णय नीति- सन्धि विग्गह- पडुए बहु जंपि रे य पयतीए । 'तेरे मेरे आउ' त्ति जंपि रे म
देसे य ॥ २. अन्तर्वेद - - कवि रे पिंगल नयणे भोजणकहमे तद् विष्णवा वारे । 'कित्तो किम्मो जिस' जंपि रे य प्रतवेते य ॥
३.
४.
५.
मरुदेस -- बंके जडे य जड बहु मोई कठिण - पीरण थूरगंगे । 'अप्पा तुप्पा' मरिण रे ग्रह पेच्छइ मरुए तत्तो ॥ गुर्जर -- -- घय लोलित पुछेंगे धम्मपरे सन्धि विग्गह णिउणे । 'उरे भल्लउ' भरिण रे ग्रह पेच्छइ गुज्जरे प्रवरे ॥ लाट - हाउलित्त-विलित्ते कय सीमंते
सुसोहिव सुगत्ते । 'हम्ह काई तुम्ह मित्तु' मरिण रे ग्रह पेच्छर लाडे || मालव-तणु - साम-मडह देहे कोवरणए मारण- जीविगो रोद्द | 'भाउअ भइणी तुम्हे' भणि रे ग्रह मालवे दिट्ठे ।। विशेष के लिये देखो - 'अपभ्रंश काव्यत्रयी, भूमिका पृ० ६१ ६४ ।
६.
७.
टक्क --- दक्षिण दाण पोरुषा विष्णारण दया विवज्जिय सरीरे । 'एहं तेह' चवंते टक्के उरण पेच्छय कुमारो ॥
८.
सिन्धु - सललितमिदु-- मंदपए गंधव पिए सदेस गय चित्ते । 'च्च उडय मे' भणि रे सुहए ग्रह सेन्धवे दिट्ठे ॥
५५ -- निम्नलिखित उदाहरण देखिये --
बेटा बेट्टी परिणाविज्जहिं । तेवि समाण धम्म घरि विज्जहिं ॥ विसम धम्म-धरि जइ विवाहइ । हो सम्मुत्तु सु निच्छइ वाहइ ।। थोडइ धणि संसारइ कज्जइ 1 साइज्जइ सब्बइ सवज्जइ ॥ विहि धम्मत्थि प्रत्थु विविज्जइ । जेणु सु श्रप्पु निब्बुइ निज्जइ ॥ 'उपदेस रसायनसार' - पृ० ६३-६४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org