Book Title: Raipaseniya Suttam
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Gurjar Granthratna Karyalay
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रायपसेणइय सुत्तनो सार
शको?
[१८६]-पएसी बोल्योः
| पएसीहे भंते ! तमे दक्ष छो, बुद्ध छो, विज्ञानी छो, तो जेम कोइ आमळाने हथेळीमां बतावे, तेम तमे मने जीवने न बतावी शको?
| तमे आवा राजा पएसीप ए प्रश्न कर्यो तेटलामां तेनी पासेज जोरथी वायु वावा लाग्यो, तेथी तृण अने वनस्पतिओ वधु हालवा लाग्युं,
ज्ञानी थइने कंपवा लाग्युं, परस्पर अथडावा लाग्यु अने नवा नवा आकारे ऊडवा लाग्यु.
| हथेलीमा ते वखते लाग जोइने केशी मुनिए राजा पएसीने कहा के-हे पएसी! जे आ तृणो अने बनस्पतिओ कंपे छे ते तो तुं जुए छेद
आत्मा न ने? तो शु पने कोइ देव हलावे छे? दानव, नाग, किचर, किंपुरुष, महोरग के गांधर्व हलावे छे?
बतावी पएसी बोल्योःहे भंते ! ए तृण वगेरेने तो वायु ज हलावे छे, पण कोइ देव दानव के किन्नर हलावतो नथी.
केशी-रूपी केशी-हे पएसी ! काम, राग, मोह, वेद, लेश्या अने शरीरने धारण करनारा ए वायुने तुं जोई शके छ ? पएसी-ना, भन्ते। हुं तेने जोई शकतो नथी.
| वायु न केशी-रूपधारी, देहधारी, मोही अने रागी पवा वायुने पण तुं जोई शकतो नथी, तो इन्द्रियातीत पया जीवने हुं तने शी रीते |
१० जोइ शकाय
तो अमृत कहीने वखाण्यो छे." आ पदनो आशय खोलतां टीकाकार केशी कुमारश्रमण- हार्द आ प्रमाणे जणावे छे-" हे राजा पएसी ! जो के तुं आत्मा केम सारी रोते बोलीने मने संतोष नथी आपतो तोपण मारा तरफ तारां भक्ति अने बहु मान छे माटे तुं' व्यवहारी' छे.” (एवामेव पएसि! जोइ तुम पि वबहारी इति-यद्यपि त्वं न सम्यगालापेन मां संतोषयसि तथापि मम विषये भक्तिबहुमानं च कुर्वन् आद्यपुरुष इव व्यवहारी एव न शकाय? अव्यवहारी. एतावता च ' मूढतराए तुम पएसी! तओ कट्टहारयाओ' इत्यनेन वचसा यत् कालुष्यमापादितं तद् अपनीतम् , परमं च संतोषं | १५ ॥१३३।। प्रापित इति। पृ० १४०)
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