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जैन उपासना पद्धति में किसी देव को बाह्य द्रव्य चढ़ाकर-भोग लगाकर उसी अर्पित द्रव्य को देव प्रसाद मानकर स्वयं ग्रहण नहीं किया जाता, वरन् वह हमारे लिये हितकारी नहीं यह मानकर छोड़ा जाता है। उसी माध्यम से आत्मा के गुणों को ग्रहण करने की प्रेरणा प्राप्त होती है। मन्त्र पूर्वक चढाये गये ये द्रव्य निर्माल्य माने जाते हैं। यह संसारी प्राणी जिन वस्तुओं को भोगोपभोग के साधन मानता है उनमें हेय बुद्धि और अपने आराध्य वीतराग देव के गुणों के प्रति उपादेय बुद्धि हो सके, इन अष्ट द्रव्यों से पूजन का यही प्रयोजन है।
द्रव्यों के क्रमशः चढ़ाने का उद्देश्य आत्मा से संबद्ध अष्ट कर्मों के नाश और उनके नाश से आठ गुणों की उपलब्धि का है, जिसका प्रमाण पाठक वर्तमान पूजा में से स्वयं अपने चिंतन द्वारा ढूँढ़ सकेंगे। इस विषय में 'जिन पूजा/जिन मन्दिर' पुस्तिका, वीर निर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन समिति, गोम्मटगिरि, इन्दौर से प्राप्त कर सकते हैं।
इस वैज्ञानिक युग में हमें प्रतिमाओं और उनकी प्रतिष्ठा तथा उनके प्रतिष्ठापकों के संबंध में भी विचार करना होगा। समाज में प्रतिष्ठा कार्य एक व्यापार बन गया जो भी प्रतिष्ठित मूर्तियाँ उपलब्ध हैं, उनमें कई ऐसी हैं जो प्रतिष्ठा शास्त्रानुसार सांगोपांग नहीं हैं। इसका कारण हमारी उपेक्षा है। मैं सन् १९३० से प्रतिष्ठा कार्य के क्षेत्र में आया हूँ। एक वर्ष तक मैंने इसका अध्ययन किया है। उन दिनों सर्वश्री पं. हजारीमलजी अजमेरा, उदासीन ब्र. पन्नालालजी गोधा, पं. भूरालालजी दोशी, पं. राजकुमारजी शास्त्री
और पं. मुन्नालालजी काव्यतीर्थं इस प्रांत के प्रतिष्ठाचार्य थे, जिनके संपर्क में रहकर प्रतिष्ठा कराता रहा। सन् १९३५ से स्वतंत्र रूप से प्रतिष्ठायें कराई। परन्तु इस कार्य में मेरी रुचि बिलकुल नहीं रही, न ही मैंने इसे आजीविका का साधन बनाया। सन् १९६९ से तो मैंने कई कारणों से प्रतिष्ठा कार्य बन्द कर दिया। फिर भी बार-बार परामर्श तो मुझ से लिया ही जाता रहा है। यह प्रतिष्ठा पाठ मेरे ६० वर्ष के श्रम द्वारा संकलित है। श्री पूज्य आचार्य वीरसागरजी, आचार्य कुंथसागरजी, आचार्य सूर्यसागरजी, आचार्य विमलसागरजी एवं आचार्य विद्यानन्दजी आदि दि. जैन गुरुओं ने मेरी प्रतिष्ठा विधि में उपस्थित रहकर सूरि मन्त्र एवं शुभाशीर्वाद प्रदान किया है। कोई ऐसा एक प्रतिष्ठापाठ नहीं है जिसमें संपूर्ण विधि दर्शाई गई हो। अतः यह 'प्रतिष्ठा प्रदीप' नये प्रतिष्ठा विधि शिक्षणार्थियों के लिये उपयोगी हो सकेगा। भा. दि. जैन विद्वत्परिषद् के द्वितीय अधिवेशन कटनी (सन् १९४६) में एवं सागर अधिवेशन (१९४७) के अवसर पर प्रतिष्ठा और ज्योतिष संबंधी शिक्षण एवं प्रशिक्षण श्री पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णी के समक्ष मैंने और स्व. डॉ. नेमिचन्दजी ज्योतिषाचार्य ने दिया था।
समाज में सामान्य रूप में दो प्रकार के क्रियाकांड प्रचलित हैं। किन्तु पंच कल्याणक द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमा की पूज्यता में कोई विरोध नहीं है। एक क्रियाकांड में पंचामृताभिषेक, चतुनिकाय के देवी-देवताओं की पूजा व उनकी मूर्ति स्थापना, हरित पुष्पफलों से पूजा और महिलाओं द्वारा प्रतिमाभिषेक ये चार हैं। दूसरे क्रियाकांड में उक्त चारों क्रियायें नहीं होती। प्रथम का विधि-विधान आशाधर प्रतिष्ठासारोद्धार व नेमिचन्द्र प्रतिष्ठातिलक द्वारा तथा द्वितीय का जयसेन (वसुविन्दु) आचार्य के प्रतिष्ठा पाठ द्वारा किया जाता है। सभी प्रतिष्ठा ग्रंथों में बिम्ब प्रतिष्ठा संबंधी मुख्य-मुख्य मन्त्र समान हैं। अंकन्यास, तिलकदान, अधिवासना, स्वस्त्ययन, श्रीमुखोद्घाटन, नेत्रोन्मीलन, प्राणप्रतिष्ठा, सूरिमन्त्र ये बिंबप्रतिष्ठा के प्रमुख मन्त्र संस्कार हैं, जो सभी प्रतिष्ठा ग्रंथों में समान हैं और महत्त्व भी इन्हीं का ही है। इनके सिवाय बाह्य क्रियाकांड भिन्न हैं। यथा यागमंडल में एक विधि द्वारा पंचपरमेष्ठी, चौबीस तीर्थंकर आदि की पूजा है, तो दूसरी विधि में चतुनिकाय के देवी-देवताओं की पूजा है। जलयात्रा आदि में भी पूजा संबंधी विभिन्नता है। अतः जहाँ
(दस)
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