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कुछ विषय विचारणीय हैं, उनकी चर्चा यहाँ कर लेना प्रासंगिक होगा : १. मूर्ति प्रतिष्ठा विधि में मूर्ति के योग्य पाषाण का चुनाव, उसका समादर तथा निर्माण विधि, प्रतिमा ___का माप आदि विषय भी शास्त्रों में हैं, पर आजकल बनी-बनाई मूर्तियाँ जयपुर आदि में मिलती हैं,
ऐसी व्यवस्था बन चुकी है अ लेते समय इस ग्रंथ में बताये हए सब लक्षणों का मिलान कर
लेना चाहिये। उन नियमों के विरुद्ध बनी हुई प्रतिष्ठा योग्य न मानी जाएगी। २. इन्द्र की प्रतिष्ठा पुरुष में ही होती है। वह सजीव है अतः सदाचारी व्यक्ति को ही इन्द्र के रूप में
प्रतिष्ठित करना चाहिये। इन्द्र-इन्द्राणी-प्रतिष्ठाचार्य-याजक आदि के लक्षण इस ग्रंथ में दिये हैं तदनुसार ही करें, रुपयों के चन्दे को आधार का प्रमुख न बनावें। भगवान के माता, पिता पुरुषों व महिलाओं में स्थापित करने की पद्धति गलत है। जैसे भगवान् की
स्थापना व्यक्ति में नहीं होती तदनुसार उनका गर्भावतरण आदि क्रियाएँ भी व्यक्ति में करना उचित • नहीं है, इसलिए जैसा कि ग्रंथ में लिखा गया है पेटिका ही में गर्भ-जन्म की क्रियाएँ करना चाहिये,
उस प्रकरण में इसका आगम प्रमाण सहित उल्लेख है। ४. जैसे इन्द्रस्थापना व्यक्ति में होती है इसी प्रकार वायुकुमार, अग्निकुमार आदि देवों की स्थापना भी
व्यक्ति में करना चाहिये। चन्दे से धन इकट्ठा करके भी प्रतिष्ठा करना शास्त्र विहित नहीं है "स्वात्म संपत्ति द्रव्येण" अपनी कमाई द्रव्य से व्यक्ति को कराना चाहिये। प्रतिष्ठाओं के सिवाय दैनिक पूजा में भी अभिषेक-पूजन-स्थापना-विसर्जन आदि के कार्य होते हैं, उनमें भी सुधार अपेक्षित है। अभिषेक की वस्तु जल है। जलाभिषेक या प्रक्षाल प्रतिमा का है। वे स्थापना रूप में भगवान है अतः वीतरागता के दर्शन में बाधा न आवे इसलिए जलाभिषेक करना आवश्यक है। यह जन्माभिषेक नहीं है अतः जन्माभिषेक बोलकर नहीं करना चाहिये। हाँ जन्माभिषेक पर इन्द्र ने जिस महान महोत्सव के साथ अभिषेक किया था उसका स्मरण सहज हो सकता है पर यह याद रखें कि यह पञ्चकल्याणक संपन्न अर्हत प्रतिमा का अभिषेक है।
स्त्रानुसार पंचोपचारी पूजा मानी गई हैआह्वानन-स्थापन-सन्निधिकरण पूजन और विसर्जन।
इनमें चार तो करते ही हैं। हाँ, जहाँ जिनकी पूजन करना है वहाँ अतदाकार स्थापन करना आवश्यक नहीं है, पर यदि स्थापना की है तो विसर्जन भी करना चाहिये, यही लोक पद्धति सामान्य अभ्यागत के आने और उसके विदा करने की भी है। विसर्जन के बाद अपराध क्षमापण भी है।
प्रचलित विसर्जन पाठ में “आहूता ये पुरादेवाः” यह प्रतिष्ठापाठों में कार्य हेतु देवों को बुलाया था उनका विसर्जन है। स्थापित जिनेन्द्र का नहीं। वह तो तब हो जाता है जब हम बोलते हैं 'तव पादौ मम हृदये" या हिन्दी में “तुवपद मेरे हिय में" बोला जाता है। यह जिनेन्द्र स्थापना जो हमने अतदाकार की है उसका विसर्जन है। तदाकार में अपराध क्षमापण पाठ पर्याप्त है।
पूजापाठ पुस्तकों को छापने वाले केवल शुद्ध व्यापार करने में संलग्न हैं। पहली छपी पुस्तक गलत भी हो तो, गलत ही छापने लगते हैं। इससे गलत पूजा-पाठ की परंपरा चल रही है। सर्वसाधारण जैन जनता तो साधारण हिन्दी पूजाओं के भी अर्थ नहीं समझ पाती, फिर संस्कृत पाठों की गलती वह कैसे जान पाएगी। यह दोष तो पुस्तक प्रकाशकों का है, उन्हें सुधार करना या विद्वानों से शुद्ध कराकर ही छापना चाहिये।
"प्रतिष्ठा प्रदीप" ग्रंथ आपके सामने है तद्नुसार प्रतिष्ठाचार्य प्रतिष्ठा करावें, इसमें प्रमुख रूप से जयसेन आचार्य प्रणीत प्रतिष्ठा पाठ से संकलन कर उपयोगी प्रकाशन किया गया है।
- जगमोहनलाल शास्त्री, कटनी
कुंडलपुर, (दमोह)
(उन्नीस)
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