Book Title: Pratikraman Avashyak Swarup aur Chintan
Author(s): Rameshmuni
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

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Page 2
________________ |15,17 नवम्बर 2006 जिनवाणी | 35 सामायिक- समभाव की साधना। २. चतुर्विंशतिस्तव- तीर्थंकर देव की स्तुति। ३, वन्दन- सद्गुरुओं को नमस्कार। ४. प्रतिक्रमण- दोषों की आलोचना। ५. कायोत्सर्ग- शरीर के प्रति ममत्व का त्याग। ६. प्रत्याख्यान- आहार आदि का परित्याग। आत्मा की जो वृत्ति अशुभ हो चुकी है, उस वृत्ति को शुभस्थिति और शुद्ध दशा में लाना प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण के आठ पर्यायवाची शब्द हैं। उनका स्वरूप इस प्रकार है१.प्रतिक्रमण- इसका शाब्दिक अर्थ है- पुनः लौटना ! हम अपनी मर्यादाओं का अतिक्रमण करके अपनी स्वभाव दशा में से निकल कर विभाव दशा में चले गये थे तो पुनः स्वभाव रूप सीमाओं में प्रत्यागमन करना प्रतिक्रमण है। जो पापकर्म मन, वचन और काया से स्वयं किये जाते हैं, दूसरों से करवाये जाते हैं और दूसरों के द्वारा किये हुए पापों का अनुमोदन किया जाता है, उन सभी पापों की निवृत्ति हेतु कृत पापों की आलोचना करना, निन्दा एवं गर्दा करना प्रतिक्रमण कहलाता है। २. प्रतिचरणा- पाप से निवृत्त न होना असंयम है। असंयम क्षेत्र से अलग-थलग रहकर अत्यन्त ही जागरूक होकर विशुद्धता के साथ संयम का पालन करना प्रतिचरणा है। संयम मुक्ति-प्राप्ति का अनन्य कारण है। दशविध श्रमण धर्म में 'संयम' भी एक धर्म हैं। वह उत्कृष्ट मंगल स्वरूप धर्म है। केवल बाह्य प्रवृत्तियों का परित्याग करना ही संयम नहीं है, अपितु आन्तरिक प्रवृत्तियों की पवित्रता का नाम 'संयम' है। संयमसाधना में दृढ़ता के साथ अग्रसर होना प्रतिचरणा है। ४. परिहरणा- साधक को साधना के प्रशस्त पथ पर बढ़ते हुए अनेक बाधाओं को सहन करना होता है। असंयम का आकर्षण उसे साधना से विचलित करना चाहता है। बाईस प्रकार के परीषह आते हैं। यदि साधक परिहरणा न रखे तो वह पथ-भ्रष्ट हो सकता है। इसलिये वह प्रतिपल-प्रतिक्षण अशुभ योग, अशुभ ध्यान और दुराचरणों का परित्याग करता है, यही परिहरणा है। ४. वारणा- इसका शाब्दिक अर्थ है- निषेध। साधक विषय-भोग के दलदल में न फँसे, इसलिये साधक को प्रतिपल-प्रतिक्षण जागरूक रहना नितान्त आवश्यक है। साधक राग और द्वेष के दावानल से बचकर और संयम-साधना में दृढ़ता के साथ बढ़ता हुआ ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है। इसलिये विषय-कषाय से सर्वथा निवृत्त होने के लिये प्रतिक्रमण के अर्थ में ‘वारणा' शब्द का प्रयोग हुआ है। ५. निवृत्ति- जैन साधना-पद्धति में 'निवृत्ति' का महत्त्व रहा है। साधक सतत जागरूक रहता है, तथापि प्रमादवश अशुभ कार्यों में उसकी प्रवृत्ति हो जाय तो उसे अतिशीघ्र ही पुनः शुभ में आना चाहिये । अशुभ से निवृत्त होकर शुभ में प्रवृत्ति करना चाहिये। अशुभ से निवृत्त होने के लिये ही प्रतिक्रमण का पर्यायवाची शब्द 'निवृत्ति' प्रयुक्त है। ६. निन्दा- साधक को प्रतिक्रमण के समय अन्तर्निरीक्षण करना होता है। उसके जीवन में जो भी पापयुक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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