Book Title: Pratikraman Avashyak Swarup aur Chintan
Author(s): Rameshmuni
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

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Page 5
________________ [ 38 | जिनवाणी ||15,17 नवम्बर 2006|| अशुभ योग से पाप का आस्रव होता है। मन, वचन और काया के अशुभ व्यापार होने पर उनसे आत्मा को पृथक् करना ‘योग प्रतिक्रमण' कहलाता है। ५. भाव प्रतिक्रमण- आस्रव द्वार, मिथ्यात्व, कषाय और योग इनमें तीन करण एवं तीन योग से प्रवृत्ति न करना 'भाव-प्रतिक्रमण' है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग के भेद से भी प्रतिक्रमण पाँच प्रकार का कहा जाता है, किन्तु वास्तव में ये पाँचों भेद एक ही हैं। अविरति और प्रमाद इन दोनों का समावेश 'आस्रवद्वार' में हो जाता है। ये पाँचों ही भयंकर दोष माने गये हैं। साधक प्रातः और संध्या के समय में अपने जीवन का अन्तर्निरीक्षण करता है। उस समय वह गहराई से चिन्तन करता रहता है कि वह कहीं सम्यग्दर्शन के पावन-पथ से विमुख होकर मिथ्यात्व की कंटीली-झाड़ियों में तो नहीं उलझा है। व्रत के वास्तविक स्वरूप को विस्मृत कर उसने अव्रत को तो ग्रहण नहीं किया है? अप्रमत्तता के नन्दनवन में विहरण के स्थान पर प्रमाद की झुलसती मरुभूमि में तो विचरण नहीं किया है? अकषाय के सुगन्धित सरसज्ज-उपवन को छोड़कर वह कषाय के धधकते हुए पथ पर तो नहीं चला है? मन, वचन और काय की प्रवृत्ति जो शुभयोग में लगनी चाहिये, वह अशुभ योग में तो नहीं लगी है? यदि मैं मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और अशुभयोग में गया हूँ तो मुझे पुनः सम्यक्त्व, व्रत, अकषाय, अप्रमाद और शुभयोग में आना चाहिये। इसी दृष्टि से इन पाँचों का प्रतिक्रमण किया जाता हैं। ये पाँचों कर्मबंध के मुख्य हेतु है। इनका प्रतिक्रमण करने वाला साधक अपने जीवन को निर्मल बना देता है। पाप-कर्म के महारोग को विनष्ट करने के लिये प्रतिक्रमण वास्तव में सबसे बड़ी अमोघ औषधि है। इस औषधि के सेवन से हमारी आत्मा स्वस्थ बनती है। साधक प्रतिक्रमण में प्रमुख रूप से चार विषयों पर गहराई से अनुचिन्तन करता है। इस दृष्टि से प्रतिक्रमण के चार भेद बनते हैं। उनका स्वरूप इस प्रकार है - १. श्रमण और श्रावक के लिये क्रमशः महाव्रत और अणुव्रत का विधान है। उनमें दोष न लगे, इसके लिये निरन्तर जागरूकता नितान्त अपेक्षित है। यद्यपि श्रमण और श्रावक जागृत एवं सावधान रहता है, तथापि कभी असावधानी से यदि हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म, परिग्रह आदि के कारण स्खलना हो गई हो तो श्रमण एवं श्रावक को उसकी विशुद्धि हेतु प्रतिक्रमण करना चाहिये। २. श्रमण और श्रावक के लिये एक आचार-संहिता निर्धारित है। श्रमण के लिये स्वाध्याय, ध्यान, प्रतिक्रमण आदि अनेक विधान हैं। श्रावक के लिये भी दैनन्दिन-साधना के विधान हैं। यदि उन विधि-विधानों के अनुपालन में स्खलना हो जाए, समय पर स्वाध्याय, ध्यान आदि न किया जाय तो उस संबंध में प्रतिक्रमण करना चाहिये। ३. आत्मा अविनाशी है, अजर और अमर है। ज्ञान-दर्शन स्वरूप आत्मा शाश्वत है और वह अमूर्त है! उस अमूर्त आत्मा के विषय में, मन में यह सोचना है कि आत्मा है या नहीं है। यदि इस प्रकार मन में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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