Book Title: Pratikraman Avashyak Swarup aur Chintan
Author(s): Rameshmuni
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

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Page 1
________________ 15.17 नवम्बर 2006 जिनवाणी, _ 34. प्रतिक्रमण आवश्यक : स्वरूप और चिन्तन उपाध्याय श्री रमेशमुनि जी शास्त्री प्रतिक्रमण के स्वरूप, उसके आठ पर्यायवाची शब्द, आस्रवद्वार आदि पंचविध प्रतिक्रमण, प्रायश्चित्त तप के भेदरूप में प्रतिक्रमण की महत्ता आदि विषयों पर प्रस्तुत आलेख में विशद विचार किया गया है। -सम्पादक इस असार संसार रूपी महासागर से सर्वथारूपेण पार पाना, न केवल दुर्गम है, अपितु एक अति दुष्कर कार्य है। तथापि इसी दुर्गम, दुष्कर और दुष्प्राप्य को अध्यात्म-साधना के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। जिस प्रकार सहस्रकिरण दिनकर और अग्नि भी अपने ताप से मलों की विशुद्धि करते हैं, उसी प्रकार साधना के प्रखर तेज से मानव की अन्तश्चेतना पर अनादि काल से जमा हुआ मल शनैः-शनैः पिघल कर बह जाता है। इसे आत्मा के साथ प्रगाढ़ रूप से चिपके हुए कर्मों के संबंध का आत्यन्तिक रूपेण विच्छेद हो जाना स्वीकार किया जाता है। 'आवश्यक' जैन-साधना का प्राण तत्त्व है। वह जीवन-विशुद्धि एवं दोष-परिष्कार का ज्वलन्तजीवन्त महाभाष्य है और साधक को अपनी आत्मा को परखने एवं निरखने का एक परम विशिष्ट उपाय है। आवश्यक के संदर्भ में स्पष्टतः उल्लेख है कि श्रमण और श्रावक दिन-रात के भीतर जिस विधि को अवश्यकरणीय समझ कर किया करते हैं, उसका नाम 'आवश्यक है। जो अवश्य किया जाय वह आवश्यक है। जो आत्मा को दुर्गुणों से हटा कर सद्गुणों की ओर प्रवृत्त करता है, वह आवश्यक है। कमों से आवृत्त आत्मा को जो गुणों से वासित या पूरित करता है, गुणों से संयुक्त कर देता है, उसका नाम 'आवश्यक' है। जो गुणों की आधार भूमि है, उसे 'आपाश्रय' कहते हैं। आवश्यक आध्यात्मिक-समभाव, विनम्रता, सरलता, निर्लोभता आदि विविध सद्गुणों का प्रधान आधार है, इसलिये वह 'आपाश्रय' भी है। साधक का लक्ष्य बाह्य पदार्थ नहीं होता है। आत्मशोधन ही उसका मूलभूत लक्ष्य होता है। जिस साधना से आत्मा शाश्वत एवं अक्षय सुख का अनुभव करती है, कर्म-मल को विनष्ट कर अजर-अमर पद प्राप्त करती है तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की अध्यात्म-ज्योति प्रज्वलित होती है, वह आवश्यक है। आवश्यक वास्तव में अध्यात्म-साधना रूपी सुरम्य प्रासाद की सुदृढ़ भूमिका है। यह सत्य है कि 'आवश्यक' दुर्विचारों एवं कुसंस्कारों के परिमार्जन की एक अध्यात्म-प्रधान साधना है। यही वास्तविक अध्यात्मयोग है। आवश्यक के छह भेद हैं। उनके नाम इस प्रकार से प्रतिपादित हैं- १. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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