Book Title: Pratikraman Avashyak Swarup aur Chintan
Author(s): Rameshmuni
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

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Page 10
________________ 15, 17 नवम्बर 2006 जिनवाणी 43 अपनी आत्मा में एक अप्रमत्त भाव की दिव्य ज्योति को प्रकाशमान कर देता है, जिससे उसका अज्ञान एवं अविवेक विनष्ट होता है। वास्तव में प्रतिक्रमण, अन्तर्मुखी साधना है, जो भविष्य में आने वाले पापकर्मो को रोककर अन्दर में पूर्वबद्ध कर्मों से लड़ने की कला है। यह आध्यात्मिक युद्धकला ही वस्तुतः मुक्ति के साम्राज्य पर अधिकार करा सकती है। संदर्भ १. (क) अनुयोगद्वार सूत्र, सूत्र २८, गाथा २ (ख) विशेषावश्यक भाष्य गाथा ८७६ (ग) अनुयोगद्वार सूत्र वृत्ति २८, पृष्ठ ३१, मलधारकगच्छीय हेमचन्द्र २. (क) अनुयोगद्वार चूर्णि, पृष्ठ १४ (ख) अनुयोगद्वार वृत्ति, पृष्ठ ३ (ग) आवश्यक सूत्र हरिभद्रीय वृत्ति, २१ (घ) मूलाचार, ७-१४ ३. (क) आवश्यक निर्युक्ति, १२३३ (ख) हरिभद्रीयावश्यक सूत्र, अध्ययन ४, निर्युक्ति गाथा १२४२ ४. (क) स्थानांग सूत्र, स्थान - १०-१६ (ख) समवायांग सूत्र, समवाय १० (ग) नवतत्त्व, गाथा २३ ५. दशवैकालिक सूत्र अध्ययन १, गाथा १ ६. (क) उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २ (ख) समवायांग सूत्र, समवाय २२ (ग) तत्त्वार्थ सूत्र, ९.८ ७. (क) सर्वार्थसिद्धि, ६ . २५ (ख) तत्त्वार्थवार्तिक, ६ . २५.१ (ग) तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, ६.२५ ८. (क) आवश्यक निर्युक्ति - १०५० (ख) दशवैकालिकसूत्र वृत्ति - हरिभद्रसूरि, ४ . २ (ग) स्थानांगसूत्र वृत्ति-अभयदेवसूरि, ३, ३, १६८ (घ) कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका, ३२६ (ङ) पंचाध्यायी - २.४७४ ९. (क) स्थानांगसूत्र, ५. ३.४६७ (ख) हरिभद्रीयावश्यक सूत्र, प्रतिक्रमणाध्ययन, पृष्ठ ५६४ १०. समयसार, ९२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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