Book Title: Prakrit Vyakaran Abhyas Uttar Pustak
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 42
________________ 11. 12. 13. 14. सो (1/1) कण्णेण / कण्णेणं ( 3 / 1 ) बहिरो (1 / 1 ) अत्थि । नियम 8 - शरीर के विकृत अंग को बताने के लिए तृतीया विभक्ति होती है। सो (1/1) णेहेण / णेहेणं ( 3 / 1 ) घरं ( 2 / 1 ) आवइ / आवेइ / आवए । नियम 9 - क्रियाविशेषण शब्दों में भी तृतीया विभक्ति होती है। सीले/सीलम्मि (7/1) णट्टे/ णट्ठम्मि (7/1) उच्चेण कुलेण (3 / 1 ) किं ? नियम 11 - किं, कज्जं, अत्थो इसी प्रकार प्रयोजन प्रकट करने वाले शब्दों के योग में आवश्यक वस्तु को तृतीया विभक्ति में रखा जाता है। ईसराण/ ईसराणं (6/2) कज्जं (1 / 1) तिणेण / तिणेणं ( 3 / 1 ) वि हवइ / हवेइ/हवए/ आदि। नियम 11- किं, कज्जं, अत्थो इसी प्रकार प्रयोजन प्रकट करने वाले शब्दों के योग में आवश्यक वस्तु को तृतीया विभक्ति में रखा जाता है। चतुर्थी विभक्तिः सम्प्रदान कारक अभ्यास 3 सो (1/1 ) पुत्तीअ / पुत्तीआ / पुत्तीइ / पुत्तीए (4 / 1 ) धणं ( 2 / 1 ) देइ । नियम 1- दान कार्य के द्वारा कर्त्ता जिसे सन्तुष्ट करना चाहता है, उस व्यक्ति की सम्प्रदान कारक संज्ञा होती है । सम्प्रदान को बताने वाले संज्ञापद को चतुर्थी विभक्ति में रखा जाता है। सो ( 1 / 1 ) धणस्स (4 / 1) चेट्ठइ / चेट्ठेइ / चेट्ठए । नियम 2- जिस प्रयोजन के लिए कोई कार्य होता है, उस प्रयोजन में चतुर्थी विभक्ति होती है। हरिस्स / हरिणो (4 / 1 ) भत्ती (1 / 1 ) रोअइ / रोएइ / रोअए । नियम 3 - रोअ (अच्छा लगना) तथा रोअ के समान अर्थ वाली अन्य क्रियाओं के योग में प्रसन्न होने वाला सम्प्रदान कहलाता है, उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है। • प्राकृत-व्याकरण अभ्यास उत्तर पुस्तक Jain Education International For Personal & Private Use Only 33 www.jainelibrary.org

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