Book Title: Prakrit Vidya me Pro Tatiyaji ke Nam se Prakashit Unke Vyakhyan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_5_001688.pdf

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Page 3
________________ ३९ आगम साहित्य परिमाण में पाँच गुने से अधिक है और उसमें भी अनेक अच्छी बातें निहित हैं। सम्पूर्ण अर्धमागधी और महाराष्ट्री का साहित्य तो शौरसेनी साहित्य की अपेक्षा दस गुने से भी अधिक होगा। अर्धमागधी आगम साहित्य में 'आचाराङ्ग' का एक-एक सूक्त ऐसा है, जो बिन्दु में सिन्धु को समाहित करता है, क्या उसके समकक्ष का कोई ग्रन्थ शौरसेनी में है ? आज 'आचाराङ्ग' ही एकमात्र ऐसा ग्रन्थ है जिसमें भगवान् महावीर के मूलवचन सुरक्षित हैं। यह सत्य है कि समयसार आत्म-अनात्म विवेक का और 'षट्खण्डागम' तथा उसकी 'धवला टीका' कर्म - सिद्धान्त का गम्भीर विवेचन प्रस्तुत करती हैं; किन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अर्धमागधी आगम में सुरक्षित जिनवचनों के आधार पर ही दिगम्बर विद्वानों ने इन सिद्धान्तों का विकास किया है और वे उससे परवर्ती हैं। पुनः यदि जैन आचार- दर्शन एवं संस्कृति के विकास के इतिहास को समझना है तो हमें अर्धमागधी साहित्य का ही सहारा लेना होगा। वे उन नींव के पत्थरों के समान हैं, जिन पर जैन दर्शन एवं संस्कृति का महल खड़ा हुआ है। नींव की उपेक्षा करके मात्र शिखर को देखने से हम जैनधर्म और सिद्धान्तों के विकास के इतिहास को नहीं समझ सकते हैं। पुनः अर्धमागधी साहित्य में भी 'विशेषावश्यकभाष्य' जैसे गम्भीर दार्शनिक चर्चा करने वाले अनेक ग्रन्थ हैं। पुनः 'बृहत्कल्पभाष', 'व्यवहारभाष्य' और 'निशीथभाष्य' जैसे जैन आचार के उत्सर्ग एवं अपवाद मार्ग की तलस्पर्शी विवेचना करने वाले तथा उसके विकास क्रम को स्पष्ट करने वाले कितने ग्रन्थ शौरसेनी में हैं ? जिस धवला टीका का इतना गुणगान किया जारहा है, क्या उसकी भी इन ग्रन्थों से कोई तुलना की जा सकती है ? पुन: यह भी नहीं भूलना चाहिए कि शौरसेनी में निबद्ध 'कसायपाहुड' एवं 'षष्ट्खण्डागम' भी 'भगवतीसूत्र', 'प्रज्ञापना', 'जीवसमास' आदि अर्धमागधी आगमों का ही विकसित एवं परिष्कारित रूप है, क्योंकि ये ग्रन्थ उनसे पूर्ववर्ती हैं। इसी प्रकार 'धवला टीका', जो दसवीं शती की रचना है, वह भी निर्युक्तियों, भाष्यों और चूर्णियों से अप्रभावित नहीं है । पुनः भाष्यों और चूर्णियों में बहुत-सी ऐसी बातें हैं, जो शौरसेनी साहित्य में उपलब्ध नहीं है। 'मूलाचार' और 'भगवती आराधना' जैसे शौरसेनी के ग्रन्थरत्न तो 'आतुरप्रत्याख्यान', 'महाप्रत्याख्यान', 'मरणविभक्ति', 'आवश्यक निर्युक्ति' आदि के आधार पर ही निर्मित हैं और उनकी सैकड़ों गाथाएँ भाषिक परिवर्तन के साथ इनमें उपलब्ध हैं। अतः अर्धमागधी और महाराष्ट्री के ग्रन्थों में शौरसेनी की अपेक्षा अनेक गुनी अधिक अच्छी बातें हैं और उनके अभाव में जैनधर्म, दर्शन, संस्कृति और आचार के सम्यक् इतिहास को नहीं समझा जा सकता है। ४-५. " लाडनूं का हमारा सारा परिवार कहता है कि शौरसेनी को जाने बिना हम अर्धमागधी को नहीं जान सकते; दोनों भाषाओं का ज्ञान परस्पर एक दूसरे पर निर्भर है अतः हमें (दिगम्बर, श्वेताम्बर) मिल-जुल कर काम करना चाहिए। " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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