Book Title: Prakrit Vidya me Pro Tatiyaji ke Nam se Prakashit Unke Vyakhyan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_5_001688.pdf

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Page 2
________________ ३८ उपलब्ध नहीं हो सका है। अत: केवल दिगम्बर आचार्यों द्वारा शौरसेनी में ग्रन्थ रचे जाने से यह सिद्ध नहीं होता कि वह अखिल भारतीय भाषा थी। क्या दिगम्बर-परम्परा के धार्मिक साहित्य के अतिरिक्त कोई एक भी ग्रन्थ ऐसा है, जो पूरी तरह शौरसेनी में लिखा गया हो, जबकि अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत में श्वेताम्बर धार्मिक साहित्य के अतिरिक्त भी अनेक ग्रन्थ लिखे गये, अत:मागधी एवं महाराष्ट्री प्राकृत को भी उसी रूप में अखिल भारतीय भाषा मानना होगा। २. "शौरसेनी प्राकृत सबसे अधिक सौष्ठव व लालित्य पूर्ण सिद्ध हुई।" यह ठीक है कि संस्कृत की अपेक्षा प्राकृत भाषाओं में लालित्य और माधुर्य है; किन्तु उस लालित्य और माधुर्य का सच्चा आस्वाद तो 'य' श्रुति प्रधान महाराष्ट्री प्राकृत में ही मिलता है। केवल नाटकों के कुछ अंश छोड़कर क्या शौरसेनी में निबद्ध एक भी लालित्यपूर्ण साहित्यिक कृति है? इसकी अपेक्षा तो महाराष्ट्री प्राकृत में 'गाथासप्तशती', 'वसुदेवहिण्डी', 'पउमचरियं', 'वज्जालग्गं', 'समराइच्चकहा', 'धूर्ताख्यान' आदि अनेकों साहित्यिक कृतियाँ हैं, अत: यह मानना होगा कि शौरसेनी की अपेक्षा भी महाराष्ट्री अधिक लालित्यपूर्ण भाषा है। क्या उपरोक्त महाराष्ट्री के ग्रन्थों की कोटि का शौरसेनी में एक भी ग्रन्थ है? पुनः जहाँ शौरसेनी में नाटकों के कुछ अंशों के अतिरिक्त मुख्यत: धार्मिक साहित्य ही रचा गया, वहाँ महाराष्ट्री प्राकृत में अनेक विधाओं के ग्रन्थ रचे गये और न केवल जैनों ने, अपितु जैनेतर लोगों ने भी महाराष्ट्री प्राकृत में ग्रन्थ लिखे हैं। जहाँ तक माधुर्य का प्रश्न है 'द'कार-प्रधान और अघोष के घोष प्रयोग होदि, आदि के कारण शौरसेनी में वह माधुर्य नहीं है, जो मध्यवर्ती कठोर व्यञ्जनों के लोप, 'य' श्रुतिप्रधान मधुर व्यञ्जनों से युक्त महाराष्ट्री में है। शौरसेनी और पैशाची तो 'संस्कृत की अपेक्षा अधिक मधुर नहीं हैं, जो माधुर्य महाराष्ट्री में है वह संस्कृत और अन्य प्राकृतों में नहीं है। महाराष्ट्री में लोप की प्रवृत्ति अधिक होने से मुखसौकर्य भी अधिक है। शौरसेनी प्राकृत का गौरव करना अच्छी बात है, लेकिन उसे ही अधिक सौष्ठवपूर्ण मानकर दूसरी प्राकृतों को उससे नीचा मानने की वृत्ति सत्यान्वेषी विद्वत् पुरुषों को शोभा नहीं देती है। ३. "बहुत सारी अच्छी बातें अर्धमागधी में नहीं हैं, जबकि शौरसेनी में सुरक्षित हैं, अनेक बातों का स्पष्टीकरण आज शौरसेनी के 'षट्खण्डागम' और 'धवला' से ही करना पड़ता है।" यह सत्य है कि जैन कर्म-सिद्धान्त की अनेक सक्ष्म विवेचनाएँ 'षटखण्डागम' एवं उसकी 'धवला टीका' में सुरक्षित है; किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि अर्धमागधी आगम साहित्य में अच्छी बातें नहीं हैं। शौरसेनी आगम-साहित्य की अपेक्षा अर्धमागधी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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