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प्राकृत विद्या में प्रो० टाँटियाजी के नाम से प्रकाशित उनके व्याख्यान के विचारबिन्दुओं की समीक्षा
__ डॉ० सुदीपजी ने प्राकृतविधा, जुलाई-सितम्बर १९९६ में डॉ० टाँटियाजी के व्याख्यान में उभर कर आये १४ विचारबिन्दुओं को अविकल रूप से प्रस्तुत करने का दावा किया है।यहाँ उनकी समीक्षा करना इसलिए अपेक्षित है कि उनके नाम पर प्रसारित भ्रान्तियों का निरसन हो सके। नीचे हम क्रमश: एक-एक बिन्दु की समीक्षा करेंगे।
१. "प्राचीनकाल में शौरसेनी अखिल भारतीय भाषा थी?"
प्रथम तो उत्तर और दक्षिण के कुछ दिगम्बर विद्वानों द्वारा शौरसेनी के ग्रन्थ लिखे जाने से अथवा कतिपय नाटकों में मागधी आदि अन्य प्राकृतों के साथ-साथ शौरसेनी के प्रयोग होने से यह सिद्ध नहीं हो जाता कि शौरसेनी अखिल भारतीय भाषा थी। यदि इन तर्कों के आधार पर एक बार हम यह मान भी लें कि शौरसेनी अखिल भारतीय भाषा थी, तो क्या इससे यह सिद्ध हो जाता है कि मागधी या महाराष्ट्री प्राकृत अखिल भारतीय भाषाएँ नहीं थी? प्राचीन काल में तो मागधी ही अखिल भारतीय भाषा थी। यदि शौरसेनी अखिल भारतीय भाषा बनी, तो वह भी मागधी के पश्चात् ही बनी है, क्योंकि अशोक के सम्पूर्ण अभिलेख मुख्यत: मागधी में ही हैं। यह सत्य है कि उन पर तद्-तद् प्रदेशों की लोकबोलियों का प्रभाव देखा जाता है, फिर भी उससे मागधी के अखिल भारतीय भाषा होने में कोई कमी नहीं आती। वास्तविकता तो यह है कि मौर्यकाल और उसके पश्चात् जब तक सत्ता का केन्द्र पाटलिपुत्र बना रहा, तब तक मागधी ही अखिल भारतीय भाषा रही, क्योंकि वह भारतीय साम्राज्य की राजभाषा थी। जब भारत में कुषाण और शककाल में सत्ता का केन्द्र पाटलिपुत्र से हटकर मथुरा बना, तभी शौरसेनी को राजभाषा होने का पद मिला। यद्यपि यह भी सन्देहास्पद ही है, क्योंकि ईसा पू० प्रथम शती से ईसा की दूसरी शती तक मथुरा में जो भी अभिलेख मिलते हैं, वे भी मागधी से प्रभावित ही हैं। आज तक भारत में शुद्ध शौरसेनी में एक भी अभिलेख
*. वर्तमान में टाँटियाजी का स्वर्गवास हो जाने पर यह उनके नाम से प्रसारित इन
भ्रान्तियों का निरसन और भी आवश्यक हो गया है।
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उपलब्ध नहीं हो सका है। अत: केवल दिगम्बर आचार्यों द्वारा शौरसेनी में ग्रन्थ रचे जाने से यह सिद्ध नहीं होता कि वह अखिल भारतीय भाषा थी। क्या दिगम्बर-परम्परा के धार्मिक साहित्य के अतिरिक्त कोई एक भी ग्रन्थ ऐसा है, जो पूरी तरह शौरसेनी में लिखा गया हो, जबकि अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत में श्वेताम्बर धार्मिक साहित्य के अतिरिक्त भी अनेक ग्रन्थ लिखे गये, अत:मागधी एवं महाराष्ट्री प्राकृत को भी उसी रूप में अखिल भारतीय भाषा मानना होगा।
२. "शौरसेनी प्राकृत सबसे अधिक सौष्ठव व लालित्य पूर्ण सिद्ध हुई।"
यह ठीक है कि संस्कृत की अपेक्षा प्राकृत भाषाओं में लालित्य और माधुर्य है; किन्तु उस लालित्य और माधुर्य का सच्चा आस्वाद तो 'य' श्रुति प्रधान महाराष्ट्री प्राकृत में ही मिलता है। केवल नाटकों के कुछ अंश छोड़कर क्या शौरसेनी में निबद्ध एक भी लालित्यपूर्ण साहित्यिक कृति है? इसकी अपेक्षा तो महाराष्ट्री प्राकृत में 'गाथासप्तशती', 'वसुदेवहिण्डी', 'पउमचरियं', 'वज्जालग्गं', 'समराइच्चकहा', 'धूर्ताख्यान' आदि अनेकों साहित्यिक कृतियाँ हैं, अत: यह मानना होगा कि शौरसेनी की अपेक्षा भी महाराष्ट्री अधिक लालित्यपूर्ण भाषा है। क्या उपरोक्त महाराष्ट्री के ग्रन्थों की कोटि का शौरसेनी में एक भी ग्रन्थ है? पुनः जहाँ शौरसेनी में नाटकों के कुछ अंशों के अतिरिक्त मुख्यत: धार्मिक साहित्य ही रचा गया, वहाँ महाराष्ट्री प्राकृत में अनेक विधाओं के ग्रन्थ रचे गये और न केवल जैनों ने, अपितु जैनेतर लोगों ने भी महाराष्ट्री प्राकृत में ग्रन्थ लिखे हैं।
जहाँ तक माधुर्य का प्रश्न है 'द'कार-प्रधान और अघोष के घोष प्रयोग होदि, आदि के कारण शौरसेनी में वह माधुर्य नहीं है, जो मध्यवर्ती कठोर व्यञ्जनों के लोप, 'य' श्रुतिप्रधान मधुर व्यञ्जनों से युक्त महाराष्ट्री में है। शौरसेनी और पैशाची तो 'संस्कृत की अपेक्षा अधिक मधुर नहीं हैं, जो माधुर्य महाराष्ट्री में है वह संस्कृत और अन्य प्राकृतों में नहीं है। महाराष्ट्री में लोप की प्रवृत्ति अधिक होने से मुखसौकर्य भी अधिक है।
शौरसेनी प्राकृत का गौरव करना अच्छी बात है, लेकिन उसे ही अधिक सौष्ठवपूर्ण मानकर दूसरी प्राकृतों को उससे नीचा मानने की वृत्ति सत्यान्वेषी विद्वत् पुरुषों को शोभा नहीं देती है।
३. "बहुत सारी अच्छी बातें अर्धमागधी में नहीं हैं, जबकि शौरसेनी में सुरक्षित हैं, अनेक बातों का स्पष्टीकरण आज शौरसेनी के 'षट्खण्डागम' और 'धवला' से ही करना पड़ता है।"
यह सत्य है कि जैन कर्म-सिद्धान्त की अनेक सक्ष्म विवेचनाएँ 'षटखण्डागम' एवं उसकी 'धवला टीका' में सुरक्षित है; किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि अर्धमागधी आगम साहित्य में अच्छी बातें नहीं हैं। शौरसेनी आगम-साहित्य की अपेक्षा अर्धमागधी
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आगम साहित्य परिमाण में पाँच गुने से अधिक है और उसमें भी अनेक अच्छी बातें निहित हैं। सम्पूर्ण अर्धमागधी और महाराष्ट्री का साहित्य तो शौरसेनी साहित्य की अपेक्षा दस गुने से भी अधिक होगा। अर्धमागधी आगम साहित्य में 'आचाराङ्ग' का एक-एक सूक्त ऐसा है, जो बिन्दु में सिन्धु को समाहित करता है, क्या उसके समकक्ष का कोई ग्रन्थ शौरसेनी में है ? आज 'आचाराङ्ग' ही एकमात्र ऐसा ग्रन्थ है जिसमें भगवान् महावीर के मूलवचन सुरक्षित हैं। यह सत्य है कि समयसार आत्म-अनात्म विवेक का और 'षट्खण्डागम' तथा उसकी 'धवला टीका' कर्म - सिद्धान्त का गम्भीर विवेचन प्रस्तुत करती हैं; किन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अर्धमागधी आगम में सुरक्षित जिनवचनों के आधार पर ही दिगम्बर विद्वानों ने इन सिद्धान्तों का विकास किया है और वे उससे परवर्ती हैं। पुनः यदि जैन आचार- दर्शन एवं संस्कृति के विकास के इतिहास को समझना है तो हमें अर्धमागधी साहित्य का ही सहारा लेना होगा। वे उन नींव के पत्थरों के समान हैं, जिन पर जैन दर्शन एवं संस्कृति का महल खड़ा हुआ है। नींव की उपेक्षा करके मात्र शिखर को देखने से हम जैनधर्म और सिद्धान्तों के विकास के इतिहास को नहीं समझ सकते हैं। पुनः अर्धमागधी साहित्य में भी 'विशेषावश्यकभाष्य' जैसे गम्भीर दार्शनिक चर्चा करने वाले अनेक ग्रन्थ हैं। पुनः 'बृहत्कल्पभाष', 'व्यवहारभाष्य' और 'निशीथभाष्य' जैसे जैन आचार के उत्सर्ग एवं अपवाद मार्ग की तलस्पर्शी विवेचना करने वाले तथा उसके विकास क्रम को स्पष्ट करने वाले कितने ग्रन्थ शौरसेनी में हैं ? जिस धवला टीका का इतना गुणगान किया जारहा है, क्या उसकी भी इन ग्रन्थों से कोई तुलना की जा सकती है ? पुन: यह भी नहीं भूलना चाहिए कि शौरसेनी में निबद्ध 'कसायपाहुड' एवं 'षष्ट्खण्डागम' भी 'भगवतीसूत्र', 'प्रज्ञापना', 'जीवसमास' आदि अर्धमागधी आगमों का ही विकसित एवं परिष्कारित रूप है, क्योंकि ये ग्रन्थ उनसे पूर्ववर्ती हैं। इसी प्रकार 'धवला टीका', जो दसवीं शती की रचना है, वह भी निर्युक्तियों, भाष्यों और चूर्णियों से अप्रभावित नहीं है । पुनः भाष्यों और चूर्णियों में बहुत-सी ऐसी बातें हैं, जो शौरसेनी साहित्य में उपलब्ध नहीं है। 'मूलाचार' और 'भगवती आराधना' जैसे शौरसेनी के ग्रन्थरत्न तो 'आतुरप्रत्याख्यान', 'महाप्रत्याख्यान', 'मरणविभक्ति', 'आवश्यक निर्युक्ति' आदि के आधार पर ही निर्मित हैं और उनकी सैकड़ों गाथाएँ भाषिक परिवर्तन के साथ इनमें उपलब्ध हैं। अतः अर्धमागधी और महाराष्ट्री के ग्रन्थों में शौरसेनी की अपेक्षा अनेक गुनी अधिक अच्छी बातें हैं और उनके अभाव में जैनधर्म, दर्शन, संस्कृति और आचार के सम्यक् इतिहास को नहीं समझा जा सकता है।
४-५. " लाडनूं का हमारा सारा परिवार कहता है कि शौरसेनी को जाने बिना हम अर्धमागधी को नहीं जान सकते; दोनों भाषाओं का ज्ञान परस्पर एक दूसरे पर निर्भर है अतः हमें (दिगम्बर, श्वेताम्बर) मिल-जुल कर काम करना चाहिए। "
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यह सत्य है कि किसी भी प्राचीन भाषा और उसके साहित्य के तलस्पर्शी ज्ञान के लिये उनकी समसामयिक भाषाओं तथा उनके साहित्य और परम्पराओं का ज्ञान अपेक्षित है और इस दृष्टि से आदरणीय टॉटियाजी का यह कथन कि हमारा लाडनूं का सारा परिवार यह कहता है कि शौरसेनी को जाने बिना हम अर्धमागधी को नहीं जान सकते, वह उचित ही है; किन्तु शौरसेनी आगमों पर आधारित दिगम्बर- परम्परा को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि वे भी अर्धमागधी आगमों का सम्यक् अध्ययन किये बिना शौरसेनी आगमों के मूल हार्द को नहीं समझ सकते हैं। 'षट्खण्डागम' के प्रथम खण्ड के ९३ वें सूत्र में 'संजद' पद की उपस्थिति को सम्यक् प्रकार से समझने के लिये यह समझना आवश्यक है कि 'षट्खण्डागम' मूलतः उस यापनीय परम्परा का ग्रन्थ है, जो अर्धमागधी आगमों और उनमें प्रतिपादित स्त्री-मुक्ति को मानती थी। 'मूलाचार' में 'पज्जुसणाकप्प' का सही अर्थ क्या है ? इसे श्वेताम्बर आगमों के ज्ञान के अभाव में वसुनन्दी जैसे समर्थ दिगम्बर टीकाकार भी नहीं समझ सके हैं। इसी प्रकार 'भगवती आराधना' के 'ठवणायरियो' शब्द का अर्थ पं० कैलाशचन्द्रजी जैसे दिगम्बर- परम्परा के उद्भट विद्वान् भी नहीं समझ सके और उसे अस्पष्ट कह कर छोड़ दिया, क्योंकि वे श्वेताम्बर आगमों एवं परम्परा से गहराई से परिचित नहीं थे, जबकि अर्धमागधी साहित्य का सामान्य अध्येता भी 'पर्युषणाकल्प' और 'स्थापनाचार्य' के तात्पर्य से सुपरिचित होता है। इसी प्रकार 'समयसार' के 'अपदेससुत्तमज्झं' का सही अर्थ समझना हो या 'नियमसार' के आत्मा के विवरण को समझना हो तो आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध का अध्ययन करना होगा। अतः प्राचीन एवं समसामयिक भाषाओं के साहित्य और परम्परा का ज्ञान सभी के लिये अपेक्षित है। यह बात केवल जैनधर्म के दोनों सम्प्रदायों तक ही सीमित नहीं है, अपितु अन्य भारतीय परम्पराओं के सन्दर्भ में भी समझनी चाहिए। मैं स्पष्ट रूप से यह मानता हूँ कि बौद्ध पालि 'त्रिपिटक' के अध्ययन के बिना जैन आगमों का और जैन आगमों के बिना 'त्रिपिटक' का अध्ययन पूर्ण नहीं होता है। जैन और बौद्ध परम्पराओं में अनेक शब्द ऐसे हैं, जिनके सही अर्थ एक दूसरे के ज्ञान के बिना सम्यक्रूप से नहीं समझे जा सकते है। अर्हत् शब्द के अरहत, अरहंत, अरिहंत, अरुहंत आदि शब्द-रूप पालि और अर्धमागधी में न केवल समान है अपितु उनकी व्युत्पत्तिपरक व्याख्याएँ भी दोनों परम्परा में समान हैं। आज भी जिसप्रकार 'आचाराङ्ग' और 'इसिभासियाई' जैसे अर्धमागधी आगमों को समझने के लिये बौद्ध और औपनिषदिक परम्पराओं का अध्ययन अपेक्षित है वैसे ही षट्खण्डागम को समझने के लिये श्वेताम्बर आगम ग्रन्थ- 'प्रज्ञापना', 'पञ्चसंग्रह' - जिसमें 'कसायपाहुड' भी समाहित है, और श्वेताम्बर कर्म ग्रन्थों का अध्ययन अपेक्षित है। यदि आचार्य कुन्दकुन्द के 'समयसार' को समझना है तो बौद्धों की 'माध्यमिककारिका' अथवा हिन्दुओं की माण्डूक्यकारिका को पढ़ना आवश्यक है। दूसरी परम्परा के ग्रन्थों के अध्ययन का डॉ० टॉटियाजी का अच्छा सुझाव है; किन्तु यह किसी
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एक परम्परा के लिये नहीं, अपितु दोनों के लिये आवश्यक है। श्वेताम्बर विद्वान् तो शौरसेनी साहित्य का अध्ययन भी करते हैं; किन्तु अधिकांश दिगम्बर विद्वान् आज भी अर्धमागधी साहित्य से प्राय: अपरिचित हैं। अत: उन्हें ही इस सुझाव की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए।
६. "आचार्य कुन्दकुन्द और अमृतचन्द के बराबर का कोई दार्शनिक आज तक हुआ ही नहीं हैं।"
यह सत्य है कि आचार्य कुन्दकुन्द और अमृतचन्द्र जैनदर्शन में आत्म-अनात्म विवेक को तार्किक रूप से प्रस्तुत करने वाले शिखर पुरुष हैं। उनकी प्रज्ञा निश्चय ही वन्दनीय है। जैन अध्यात्मविद्या के क्षेत्र में उनका जो महत्त्वपूर्ण अवदान है उसे कभी भी नहीं भुलाया जा सकता है; किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि श्वेताम्बर-परम्परा में हुए दार्शनिकों और चिन्तकों का अवदान उनकी अपेक्षा कम महत्त्वपूर्ण है। अनेकान्त की दर्शन जगत् में तार्किक ढंग से स्थापना के क्षेत्र में सिद्धसेन दिवाकर का, समदर्शी दार्शनिक के रूप में आचार्य हरिभद्र का और साहित्य स्रष्टा के रूप में हेमचन्द्राचार्य का जो अवदान है, उसे भी कम नहीं आंका जा सकता है। इनके अतिरिक्त भी मल्लवादी, जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण, संघदासगणि, यशोविजयजी, आनन्दघनजी आदि अनेक शीर्षस्थ दार्शनिक और आध्यात्मिक सत्पुरुष श्वेताम्बर-परम्परा में भी हुए हैं। दर्शन-जगत् में इनका महत्त्व और मूल्य कम नहीं है। जिस प्रकार अमृतचन्द्र को अमृतचन्द्र बनाने में कुन्दकुन्द का सबसे बड़ा योगदान है, उसी प्रकार कुन्दकुन्द को कुन्दकुन्द बनाने में भी सिद्धसेन दिवाकर और नागार्जुन जैसे जैन एवं बौद्ध दार्शनिकों का महत्त्वपूर्ण अवदान है। दिगम्बर विद्वानों को इसे भी नहीं भूलना चाहिए कि दिगम्बर समाज को कुन्दकुन्द और अमृतचन्द्र की प्रतिभा से परिचित करवाने वाले बनारसीदास, भैय्या भगवतीदास और कानजीस्वामी मूलतः श्वेताम्बर-परम्परा में ही जन्मे थे। कुन्दकुन्द और अमृतचन्द्र को दिगम्बर-परम्परा में सुस्थापित करने वाले श्वेताम्बर कुलोद्भूत इन अध्यात्मरसिकों का ऋण भी दिगम्बर-परम्परा को स्वीकार करना चाहिए।
७. "श्वेताम्बरों के समस्त आचार्यों का निचोड़ 'धवला' ग्रन्थ में मिल जाता है इसके जैसा कोई ग्रन्थ है ही नहीं।" - भाई सुदीपजी, डॉ० टाँटियाजी के इस कथन का सीधा तात्पर्य तो यह है कि
यदि 'धवला' में श्वेताम्बर आचार्यों के विचारों का निचोड़ है, तो वह श्वेताम्बर ग्रन्थों के आधार पर निर्मित हुआ है, इसे भी स्वीकार करना होगा और धवलाकार को श्वेताम्बर आचार्यों का ऋणी भी होना पड़ेगा; लेकिन यह कथन केवल एक अतिशयोक्ति के अलावा कुछ भी नहीं है, क्योंकि 'धवला' में मुख्यत: तो पूर्ववर्ती श्वेताम्बर-दिगम्बर कर्म ग्रन्थों में वर्णित विषय का ही निचोड़ है। इसके अलावा अधिकतर दार्शनिक एवं आचार सम्बन्धी समस्याएँ तो उसमें केवल सतही (ऊपरी) स्तर पर ही वर्णित हैं। क्या अनेकान्त
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की स्थापना की दृष्टि से सिद्धसेन दिवाकर के 'सन्मतितर्क' और उसकी टीका में अथवा 'नयचक्र' और सिंहसूरि की उसकी टीका में अथवा 'विशेषावश्यकभाष्य' और उसकी चूर्णी में अथवा 'बृहत्कल्प', 'व्यवहार' और 'निशीथ' के भाष्य एवं चूर्णियों में जैन आचार की गूढ़तम समस्याओं के सन्दर्भ में जो गम्भीर विवेचन है, वह क्या 'धवला' में उपलब्ध है?
एक सामान्यजन को तो ऐसे कथनों से भ्रमित किया जा सकता है; किन्तु उन विद्वानों को जिन्होंने दोनों परम्पराओं के ग्रन्थों का तलस्पर्शी अध्ययन किया हो, ऐसे अतिशयोक्तिपूर्ण कथनों से भ्रमित नहीं किया जा सकता है। प्रो० टाँटियाजी ने चाहे यह बात दिगम्बर आचार्यों और जनसाधारण को खुश करने की दृष्टि से कह भी दो हो तो क्या वे अपने इस कथन को अन्तरात्मा से स्वीकार करते हैं?
पुन: यह कथन कि 'धवला जैसा कोई ग्रन्थ है ही नहीं यह भी चिन्त्य है। वैसे तो प्रत्येक ग्रन्थ अपनी विषयवस्तु या शैली आदि की अपेक्षा से अपने आप में विशिष्ट होता है अत: उसकी तुलना किसी अन्य परम्परा के ग्रन्थों से करके उन्हें निकृष्ट ठहरा देना एक निरर्थक प्रयास ही होगा? यहाँ यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि 'धवला' अपने आप में कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं है वह तो 'षट्खण्डागम' के पाँच खण्डों की टीका है। उसका वैशिष्ट्य केवल कर्म-सिद्धान्त की विवेचना की दृष्टि से ही है। यदि श्वेताम्बर ग्रन्थों को एक ओर छोड़ भी दें तो क्या 'धवला' और 'समयसार' में कोई तुलना की जा सकती है? क्या 'समयसार', 'धवला' की अपेक्षा निम्न कोटि का ग्रन्थ है? दूसरी परम्परा के ग्रन्थों को निम्न कोटि का बताने के लिये इस प्रकार की वाक्यावलियों का प्रयोग उचित नहीं है। क्या टाँटियाजी की दृष्टि में 'भगवतीसूत्र', 'प्रज्ञापना', 'सन्मतितर्क' और उसकी टीका अथवा 'विशेषावश्यकभाष्य', 'धवला' की अपेक्षा निम्न कोटि के ग्रन्थ हैं? किसी भी ग्रन्थ के सापेक्षित वैशिष्ट्य को स्वीकार करना एक बात है; किन्तु निरपेक्ष रूप से उसे सर्वोपरि घोषित कर देना अनेकान्त के उपासकों के लिये उचित नहीं है।
८."शौरसेनी पालि भाषा की जननी है- यह मेरा स्पष्ट चिन्तन है। पहले बौद्धों के ग्रन्थ शौरसेनी में थे, उनको जला दिया गया और पालि में लिखा गया।"
यद्यपि इस कथन की समीक्षा हम पूर्व लेख में कर चुके हैं, फिर भी स्पष्टता के लिये दो-तीन बातें बताना आवश्यक है।
मेरा प्रथम प्रश्न तो यह है कि 'द'कार और 'ण'कार प्रधान शौरसेनी जो दिगम्बर
*. देखें इसी ग्रन्थ में प्रकाशित मेरा लेख- जैन आगमों की मूलभाषा अर्धमागधी
या शौरसेनी.
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आगम ग्रन्थों अथवा नाटकों में मिलती है वह तो तीसरी शताब्दी के पूर्व कहीं उपलब्ध ही नहीं है, जबकि बौद्ध त्रिपिटक पालि भाषा में उसके पूर्व लिखे जा चुके थे। क्या कोई भी परवर्ती भाषा अपनी पूर्ववर्ती भाषा की जननी हो सकती है? क्या आदरणीय टाँटियाजी और सुदीपजी किसी प्राचीन ग्रन्थ का एक भी ऐसा प्रमाण प्रस्तुत कर सकते हैं जिसमें यह कहा गया हो कि शौरसेनी से पालि भाषा का जन्म हुआ? पुन: क्या इस बात का भी कोई प्रमाण है कि पहले बौद्धों के ग्रन्थ शौरसेनी में थे, उनको जला दिया गया और फिर उनको पालि में लिखा गया। आचार्य बुद्धघोष के प्रामाणिक कथन के आधार पर हमें यह बात स्पष्ट हो जाती है कि बुद्ध-वचन मूलत: मागधी में थे-~--
सा मागधी मूलभाषा नरायाय आदिकप्पिका।
ब्रह्मणो च अस्सुतालापा संबुद्धा चापि भासरे।।* अत: यह कहना तो सम्भव है कि मागधी पालि भाषा की जननी है; किन्तु यह कथमपि सम्भव नहीं है कि परवर्ती शौरसेनी पूर्ववर्ती मागधी या पालि भाषा की जननी है- यह तो पौत्री को माता बनाने जैसा प्रयास है। यह बात तो बौद्ध विद्वानों ने स्वीकार की है कि जो बुद्ध-वचन पहले मागधी में थे, उन्हें पालि में रूपान्तरित किया गया; किन्तु यह तो किसी ने भी आज तक नहीं कहा कि बुद्ध-वचन पहले शौरसेनी में थे
और उन्हें जलाकर फिर पालि में लिखा गया। यदि इस सम्बन्ध में उनके पास कोई प्रमाण हो तो प्रस्तुत करें। मुझे तो ऐसा लगता है कि आदरणीय टाँटियाजी ने मात्र यह कहा होगा कि प्राकृत (मागधी) पालि भाषा की जननी है और पहले बौद्धों के ग्रन्थ प्राकृत में थे, उनको जला दिया गया और पालि भाषा में लिखा गया है। यहाँ प्राकृत के स्थान पर शौरसेनी शब्द की योजना भाई सुदीपजी ने स्वयं की है, ऐसा स्पष्ट प्रतीत हो रहा है। प्रो० टॉटियाजी जैसे बौद्ध विद्या के प्रकाण्ड विद्वान् ऐसी आधारहीन बातें कर सकते हैं.... यह विश्वसनीय नहीं लगता है। डॉ० सुदीपजी ने इसमें शब्दों की तोड़-मरोड़ की है। इसका प्रमाण यह है कि प्राकृतविद्या, जनवरी-मार्च १९९६ में उन्होंने टाँटियाजी के नाम से लिखा है कि "बौद्धों ने बाद में ... योजनापूर्वक शौरसेनी में निबद्ध बौद्ध साहित्य का मागधीकरण किया और शौरसेनी निबद्ध बौद्ध साहित्य के ग्रन्थों को अग्निसात कर दिया गया जबकि प्राकृतविद्या, जुलाई-सितम्बर १९९६ में लिखा है कि "बौद्धों के ग्रन्थ शौरसेनी में थे उनको जला दिया गया और पालि में लिखा गया।" इस प्रकार सुदीपजी टाँटियाजी के नाम से एक जगह लिखते हैं कि बौद्ध ग्रन्थों का मागधीकरण किया गया जबकि दूसरी जगह लिखते हैं कि पालि में लिखा गया- इन दोनों में सच क्या है? टॉटियाजी ने तो कोई एक ही बात कही होगी। मागधी और पालि दोनों अलग-अलग भाषाएँ हैं। सत्य तो यह है कि बौद्ध साहित्य मागधी से पालि में लिखा गया था न कि शौरसेनी से पालि में। इससे यह भी सिद्ध * Preface to R.S. Childer's A dictionary of the Pali Language.'P.xiii.
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हो जाता है कि सुदीपजी ने टाँटियाजी के शब्दों में तोड़-मरोड़ की है।
९. "कर्म-सिद्धान्त के बहुत से रहस्यों को जब हम (श्वेताम्बर) नहीं समझ पाते हैं, तब हम 'षट्खण्डागम' के सहारे से ही उनको समझते हैं। 'षट्ण्डागम' में कर्म-सिद्धान्त के समस्त कोणों को बड़े वैज्ञानिक ढंग से रखा गया है।"
यह सत्य है कि 'षट्खण्डागम' में जैन कर्म-सिद्धान्त का गम्भीर एवं विशद विवेचन है। इसलिए यह स्वाभाविक है कि कर्म-सिद्धान्त के रहस्यों को उद्घाटित करने के लिये श्वेताम्बरों को भी कभी-कभी उसका सहारा लेना होता है; किन्तु उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि 'षटखण्डागम' मूलत: दिगम्बर सम्प्रदाय का ग्रन्थ न होकर उस विलुप्त यापनीय सम्प्रदाय का ग्रन्थ है, जो अर्धमागधी आगमों और उनमें प्रतिपादित स्त्री-मुक्ति के सिद्धान्त को मान्य रखता था, जिसका प्रमाण उसके प्रथम खण्ड का ९३वाँ सूत्र है जिसमें से 'संजद' शब्द के प्रयोग को हटाने का दिगम्बर विद्वानों ने उपक्रम भी किया था और प्रथम संस्करण को मुद्रित करते समय उसे हटा भी दिया था, यद्यपि बाद में उसे रखना पड़ा, क्योंकि उसे हटाने पर उस सूत्र की धवला टीका गड़बड़ा जाती थी। इस ग्रन्थ के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा मैंने अपनी पुस्तक "जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय के तृतीय अध्याय में की है और प्रस्तुत प्रसंग में केवल इतना बता देना पर्याप्त है कि यह 'षट्खण्डागम' मूलत: 'प्रज्ञापना' आदि अर्धमागधी आगम साहित्य के आधार पर निर्मित हआ है और इसके प्रथम खण्ड की 'जीवसमास' की विषयवस्तु से बहुत कुछ समरूपता है और दोनों एक ही काल की कृतियाँ हैं। इस सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन 'जीवसमास' की भूमिका में किया गया है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि 'षट्खण्डागम' में प्रतिपादित जैन कर्म-सिद्धान्त के इतिहास को समझने के लिये अर्धमागधी आगमों एवं श्वेताम्बर कर्म साहित्य का अध्ययन भी उतना ही जरूरी है जितना षटखण्डागम' का। मैं स्वयं भी जैन कर्म-सिद्धान्त के विकसित स्वरूप के गम्भीर विवेचन की दृष्टि से 'षट्खण्डागम' के मूल्य और महत्त्व को स्वीकार करता हूँ; किन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं है कि अर्धमागधी आगमों एवं श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा प्रणीत प्राचीन कर्म-साहित्य को नकार दिया जावे।
१०. "हरिभद्रसूरि का सारा 'योगशतक' 'धवला' से है। 'धवला' समस्त जैनदर्शन और ज्ञान का अगाध भण्डार है। 'धवला' में क्या नहीं है?"
__ हरिभद्रसूरि का सारा 'योगशतक' 'धवला' से है इस कथन का अर्थ यह है कि हरिभद्र ने 'योगशतक' को 'धवला' से लिया है। यह विश्वास नहीं होता कि टाँटियाजी जैसे प्रौढ़ विद्वान् को जैन इतिहास का इतना भी बोध नहीं है कि 'धवला' और हरिभद्र के 'योगशतक' में कौन प्राचीन है? अनेक प्रमाणों से यह सुस्थापित हो चुका है कि 'धवला' की रचना नवीं शताब्दी के उत्तरार्ध और दसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में हुई जबकि
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हरिभद्र आठवीं शताब्दी के विद्वान् हैं। सत्य तो यह है कि हरिभद्रसूरि के 'योगशतक' से धवलाकार ने लिया है, अत: टॉटियाजी जैसे विद्वान् के नाम से ऐतिहासिक सत्य को भी उलट देना कहाँ तक उचित है ? धवलाकार ही हरिभद्रसूरि के ऋणी हैं, हरिभद्रसूरि धवलाकार के ऋणी नहीं हैं।
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यह सत्य है कि 'धवला' में अनेक बातें संकलित कर ली गयी हैं; किन्तु अनेक तथ्यों का संकलन करने मात्र से कोई ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण नहीं बन जाता है। पुन: यह कहना कि 'धवला' में क्या नहीं है, एक अतिशयोक्तिपूर्ण कथन के अलावा कुछ नहीं है। जैन विद्या के अनेक पक्ष ऐसे हैं जिनकी 'धवला' में कोई चर्चा ही नहीं है। 'धवला' मूलतः 'षट्खण्डागम' की टीका है, जो जैन कर्म - सिद्धान्त का ग्रन्थ है अतः उसका भी मूल प्रतिपाद्य तो जैन कर्म सिद्धान्त ही है, अन्य विषय तो प्रसंगवश समाहित कर लिये गये हैं। 'धवला' में क्या नहीं है? इस कथन का यह आशय लगा लेना कि 'धवला' में सब कुछ है, एक भ्रान्ति होगी । 'प्रवचनसारोद्धार' आदि अनेक श्वेताम्बर ग्रन्थों का विषय वैविध्य 'धवला' से भी अधिक है।
११. " आचार्य वीरसेन बहुश्रुत विद्वान् थे । उन्होंने समस्त दिगम्बर - श्वेताम्बर साहित्य का गहन अवलोकन किया था । "
आचार्य वीरसेन एक बहुश्रुत विद्वान् थे, यह मानने में किसी को भी कोई आपत्ति नहीं है; किन्तु वही एकमात्र बहुश्रुत विद्वान् हुए हों, ऐसा भी नहीं है। दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्पराओं में ऐसे अनेक बहुश्रुत विद्वान् हुए हैं। पुनः उन्होंने श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं के साहित्य का अध्ययन किया हो, यह मानने में भी किसी को बाधा नहीं हो सकती है; किन्तु यह कहना कि उन्होंने समस्त दिगम्बर - श्वेताम्बर साहित्य का गहन अवलोकन किया था, अतिशयोक्तिपूर्ण कथन ही है। 'धवला' में ऐसे अनेक स्थल हैं, जो श्वेताम्बर - परम्परा और उसके ग्रन्थों से उनके परिचित न होने का संकेत करते हैं। साथ ही उनके काल तक श्वेताम्बर - दिगम्बर साहित्य इतना विपुल था कि उस सबका गहन अध्ययन कर लेना एक व्यक्ति के लिये किसी भी स्थिति में सम्भव नहीं था। अधिक तो क्या ? जिस यापनीय परम्परा के ग्रन्थ पर उन्होंने टीका लिखी उसकी अनेक मान्यताओं के सम्बन्ध में उन्होंने कोई संकेत तक नहीं दिया। उस युग के श्वेताम्बर आगमों, यापनीय ग्रन्थों और स्वयं अपनी ही परम्परा के आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की विषयवस्तु के सम्बन्ध में धवलाकार का ज्ञान कितना सीमित था यह तो उनकी टीका से ही स्पष्ट है।
१२. "जैन दर्शन का हर विषय क्रमबद्ध (systematic) रूप में शौरसेनी साहित्य में प्राप्त होता है।"
यह सत्य है कि शौरसेनी साहित्य में जैन दर्शन से सम्बन्धित जिन विषयों की
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विवेचना की गयी है, वह अर्धमागधी आगमों की अपेक्षा अधिक सुव्यवस्थित है; किन्तु इसका कारण यह है कि शौरसेनी साहित्य जिस काल में निर्मित हुआ उस काल तक जैनदर्शन के विभिन्न सिद्धान्त व्यवस्थित रूप से विकसित हो चुके थे। किसी भी सिद्धान्त का विकास एक कालक्रम में होता है। क्रमबद्धता और व्यवस्था तो उस अन्तिम स्थिति की परिचायक है जब वह सिद्धान्त अपने विकास की चरम अवस्था में पहुँच जाता है। शौरसेनी साहित्य में जैन दर्शन के विभिन्न सिद्धान्त व्यवस्थित और क्रमबद्ध रूप में उपलब्ध होते हैं, यह तो इस तथ्य का सूचक है कि शौरसेनी साहित्य अर्धमागधी आगम साहित्य से परवर्ती है और उसी के आधार पर निर्मित हुआ है। परवर्तीकालीन रचनाओं की यह विशेषता होती है कि वे अपने पूर्वकालीन रचनाओं की कमियों का निराकरण कर अपने विषय को अधिक व्यवस्थित और क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत करती हैं। अतः शौरसेनी साहित्य में वर्णित विषयों का अधिक व्यवस्थित और क्रमबद्ध होना इसी तथ्य का सूचक है कि वे अर्धमागधी आगमों से परवर्ती हैं। पुन: इस कथन का यह आशय भी नहीं समझना चाहिए कि अर्धमागधी साहित्य में क्रमबद्धता और व्यवस्था का अभाव है। अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत में लिखी गयी श्वेताम्बर-परम्परा की अनेक परवर्तीकालीन रचनाओं में भी ऐसी ही व्यवस्था और क्रमबद्धता उपलब्ध होती है। सिद्धसेन दिवाकर, मल्लवादी, जिनभद्रगणि, हरिभद्र, सिद्धर्षि, हेमचन्द्र आदि की रचनाओं में भी ऐसी ही विषय की सुसम्बद्धता एवं सुस्पष्टता है। १३. "श्वेताम्बर और दिगम्बर" दोनों एक दूसरे के सहायक बनिये।
__ आदरणीय टाँटियाजी का यह सुझाव तो हम सभी को स्वीकार करने योग्य है। वस्तुतः यदि हमें जैन धर्म-दर्शन के समग्र स्वरूप को समझना या प्रस्तुत करना है, तो परस्पर एक दूसरे का सहयोग अपेक्षित है, क्योंकि दोनों परम्पराएँ परस्पर मिलकर ही जैनधर्म और संस्कृति का एक सम्पूर्ण चित्र प्रस्तुत कर सकती हैं; किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि एक दूसरे की आलोचना अथवा दूसरे को हेय मानकर अपनी श्रेष्ठता का बढ़-चढ़ कर दावा करना, इस दिशा में कथमपि सहायक नहीं हो सकेगा। हमें अपनी परम्पराओं की विशेषता को उजागर करने का अधिकार तो है; किन्तु दूसरे पक्ष को हीन या नीचा दिखाकर नहीं। हमें अपनी बातों को इस तरह से प्रस्तुत करना चाहिए कि वे दूसरे की अस्मिता और गरिमा को खण्डित न करें। अपेक्षा तो यह भी की जानी चाहिए कि हम दूसरे पक्ष में निहित अच्छाइयों को भी स्वीकार करने के लिये तत्पर रहें और इस प्रकार अपनी उदार दृष्टि का परिचय दें! प्रो० टॉटियाजी ने शौरसेनी साहित्य और दिगम्बर-परम्परा की अच्छाइयों को उजागर करके अपनी उदार दृष्टि का परिचय दिया है; किन्तु उसे तोड़-मरोड़ कर इस तरह क्यों प्रस्तुत किया जा रहा है कि जिससे अर्धमागधी साहित्य और श्वेताम्बर समाज की अस्मिता को आघात लगे।
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१४. "इस व्याख्यान में टॉटियाजी ने घवला, षट्खण्डागम, वीरसेन, कुन्दकुन्द, मूलाचार, आत्मख्याति, अमृतचन्द्र आदि की भी खुलकर प्रशंसा की । "
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निश्चय ही 'षट्खण्डागम', उसकी 'धवला' टीका और टीकाकार वीरसेन का जैन कर्म सिद्धान्त के विकास में महत्त्वपूर्ण अवदान है, जिसे जैन दर्शन का कोई भी अध्येता अस्वीकार नहीं कर सकता। इसी प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द के 'समयसार' और अमृतचन्द्र की 'आत्मख्याति' टीका के कलशों का जैन दार्शनिक साहित्य के क्षेत्र में जो महत्त्वपूर्ण अवदान है उसके आधार पर उन्हें जैन अध्यात्मरूपी मन्दिर का स्वर्णकलश कह सकते हैं। आदरणीय टॉटियाजी ने उन ग्रन्थों और ग्रन्थकारों की प्रशंसा कर अपनी उदारता का परिचय दिया है और इस प्रकार अपना कर्त्तव्य पूर्ण किया है। जैन विद्या का कोई भी तटस्थ विद्वान् इन ग्रन्थों और ग्रन्थकारों के महत्त्व और मूल्य को अस्वीकार नहीं करेगा; किन्तु भाई सुदीपजी को इस प्रशंसा का यह आशय नहीं लगाना चाहिए कि केवल दिगम्बर- परम्परा में या केवल शौरसेनी साहित्य के क्षेत्र में ही उच्चकोटि के विद्वान् हुए हैं और महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे गये हैं। श्वेताम्बर - परम्परा में भी सिद्धसेन दिवाकर, मल्लवादी, जिनभद्रगणि, हरिभद्र, हेमचन्द्र आदि अनेक विद्वान् हुए हैं और उनकी रचनाओं का भी महत्त्व एवं मूल्य कम नहीं हैं।
यदि प्राकृतविद्या को वस्तुतः प्राकृतविद्या का नाम सार्थक करना है तो उसे प्राकृत की विभिन्न विधाओं यथा अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, अपभ्रंश सभी को समान रूप से महत्त्व देना चाहिए। यदि उन्हें केवल शौरसेनी का ही गुणगान करना है और दूसरी प्राकृतों को हेय दिखाना है तो पत्रिका का नाम शौरसेनी प्राकृतविद्या या शौरसेनी विद्या रख लेना चाहिए। केवल शौरसेनी ही प्राकृत है, उसी से समस्त प्राकृतों का जन्म हुआ है और उसी में ही सत्साहित्य का सर्जन हुआ है, ऐसा कथन सत्य नहीं है। प्राकृत की अन्य विधाओं में भी उत्तम कोटि के ग्रन्थ लिखे गये हैं और शीर्षस्थ विद्वान् हुए हैं। अतः उन्हें हेय समझ कर किसी भी प्रकार की अनभिज्ञता और अज्ञानता को बीच में लाकर प्राकृतविद्या के महत्त्व को घटाने का उपक्रम नहीं होने देना चाहिए।
मैं प्राकृतविद्या के सम्पादक भाई सुदीपजी से यह निवेदन करना चाहूँगा कि या तो वे आदरणीय टॉटियाजी के व्याख्यान की टेप को अविकल रूप से यथावत् प्रकाशित कर दें या उस टेप को जो चाहें उन्हें उपलब्ध करा दें ताकि उसे प्रकाशित करके यह निरर्थक विवाद समाप्त किया जा सके।
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शौरसेनी प्राकृत के सम्बन्ध में प्रो० भोलाशंकर
व्यास की स्थापनाओं की समीक्षा
'प्राकृतविद्या' के सम्पादक डॉ० सुदीप जैन ने प्रो० भोलाशंकर व्यास के व्याख्यान में उभरकर आये कुछ विचार-बिन्दुओं को 'प्राकृत-विद्या', जनवरी-मार्च १९९७ के अपने सम्पादकीय में प्रस्तुत किया है। हम यहाँ सर्वप्रथम प्रो० भोलाशंकर व्यास के नाम से प्रस्तुत उन विचार-बिन्दुओं को अविकल रूप से देकर फिर उनकी समीक्षा करेंगे। डॉ० सुदीप जैन लिखते हैं कि
"प्राकृत भाषा इस देश की मूल भाषा रही है और प्राकृत के विविध रूपों में भी शौरसेनी प्राकृत ही मूल प्राकृत थी, इसकी समवर्ती मागधी प्राकृत इसी का 'क्षेत्रीयसंस्करण' थी। शौरसेनी प्राकृत मध्य देश में बोली जाती थी तथा सम्पूर्ण बृहत्तर भारत में इसके माध्यम से साहित्य-सृजन होता रहा है इसीलिए शौरसेनी प्राकृत ही अन्य सभी प्राकृतों एवं लोकभाषाओं की जननी रही है। पहिले मूल दो ही प्राकृतें थी-शौरसेनी और मागधी। परवर्ती महाराष्ट्री प्राकृत पूरी तरह से शौरसेनी का ही परिवर्तित रूप है। 'महाराष्ट्री' का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व मैं नहीं मानता। यही नहीं, 'अर्धमागधी' प्राकृत, जो कि मात्र श्वेताम्बर जैन आगम-ग्रन्थों में ही मिलती है, का आधार भी शौरसेनी प्राकृत ही है। इसके बाद परिशुद्ध शौरसेनी भाषा 'कसायपाहुडसुत्त', 'छक्खण्डागमसुत्त', कुन्दकुन्द-साहित्य एवं 'धवला' - 'जयघवला' आदि में प्रयुक्त मिलती है। दिगम्बर जैन साहित्य की शौरसेनी प्राकृत भाषा अकृत्रिम, स्वाभाविक एवं वास्तविक जनभाषा है। यही नहीं, बौद्ध ग्रन्थों की भाषा मूलतः शौरसेनी प्राकृत ही है, जिसे कृत्रिम रूप से संस्कृतनिष्ठ बनाकर पूर्वदेशीय प्रभावों के साथ पालि रूप दिया गया। उसे खींच-तानकर प्राचीन बनाने की कोशिश की गयी है, जिससे उसकी वाक्यरचना में जटिलता आ गयी है। इसी कारण मैं शौरसेनी को ही मूल प्राकृत भाषा मानता हूँ। मागधी भी लगभग इतनी ही प्राचीन है, परन्तु वस्तुतः उसमें पूर्वीय उच्चारण-भेद के अतिरिक्त अन्य कोई अन्तर नहीं है, मूलतः वह भी शौरसेनी ही है।" -प्रो० भोलाशंकर व्यास (प्राकृतविद्या, जनवरी-मार्च १९९७, पृ० १७)
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४९ यद्यपि इन विचारबिन्दुओं में अधिकांश वे ही हैं, जिन्हें नथमलजी टाँटिया के व्याख्यान के सन्दर्भ में भी प्रस्तुत किया गया हैं। इस प्रकार प्रो० व्यासजी के व्याख्यान में उभरकर आये विचार-बिन्दुओं में यद्यपि कोई नवीन मुद्दे सामने नहीं आये हैं फिर भी यहाँ उनकी समीक्षा कर लेना अप्रासंगिक नहीं होगा।
१. "शौरसेनी प्राकृत ही मूल प्राकृत थी, इसकी समवर्ती मागधी प्राकृत इसका क्षेत्रीय संस्करण थी।"
शौरसेनी प्राकृत यदि मूल प्राकृत थी, तो फिर भास के नाटकों (ईसा की दूसरी शती) के पूर्व के प्राकृत अभिलेखों और प्राकृत के ग्रन्थों में शौरसेनी की प्रवृत्तियाँ अर्थात् मध्यवर्ती "त्" के स्थान पर "द्'' एवं "न" के स्थान पर “ण” क्यों नहीं दिखायी देती है? इस सम्बन्ध में हम विस्तार से चर्चा अपने अन्य लेखों 'जैन आगमों की मूलभाषा-अर्धमागधी या शौरसेनी १, 'अशोक के अभिलेखों की भाषा'२ आदि में कर रहे हैं। सत्यता यह है कि ईसा की दूसरी शती के पूर्व उस शौरसेनी प्राकृत का कहीं कोई अता-पता ही नहीं था, जिसे मूल प्राकृत कहा जा रहा है।
प्रो० व्यासजी का यह कथन कि 'मागधी प्राकृत शौरसेनी प्राकृत का क्षेत्रीय संस्करण थी', यह भाषा-शास्त्रीय ठोस प्रमाणों पर आधारित नहीं है, क्योंकि मूलतः सभी प्राकृतें अपनी-अपनी क्षेत्रीय बोलियों से ही विकसित हुई हैं। मागधी, पैशाची, शौरसेनी, महाराष्ट्री आदि प्राकृतों को प्राकृत भाषा के क्षेत्रीय संस्करण तो कहा जा सकता है; किन्तु इनमें से किसी को भी मूल और दूसरी को उसका क्षेत्रीय संस्करण नहीं कहा जा सकता। इनमें से किसी को माता और किसी को पुत्री नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि ये तो सभी बहनें हैं। यदि हम कालक्रम की दृष्टि से विचार करें तो हमें यही मानना होगा कि लिखित भाषा के रूप में मागधी ही सबसे प्राचीन प्राकृत है। अत: इस दृष्टि से प्रो० व्यासजी का यह समीकरण उलट जायेगा और उन्हें यह मानना होगा कि मागधी मूल प्राकृत है और शौरसेनी प्राकृत मागधी प्राकृत का एक क्षेत्रीय संस्करण है।
२. शौरसेनी प्राकृत मध्य-देश में बोली जाती थी तथा सम्पूर्ण बृहत्तर भारत में इसके माध्यम से साहित्य सृजन होता रहा।" १. "जैन आगमों की मूल भाषा अर्धमागधी या शौरसेनी', डॉ० सागरमल जैन, • जिनवाणी, सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर, अप्रैल, मई, जून एवं सितम्बर
अंक, १९९८। ज्ञातव्य है कि यह लेख इस कृति में इसी नाम से प्रकाशित है। 'अशोक के अभिलेखों की भाषा मागधी या शौरसेनी', जैनविद्या के विविध आयाम, खण्ड ६, डॉ० सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, १९९८, पृ० ७०८-७११। यह लेख भी इसी कृति में समाहित किया गया है।
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यह तो सत्य है कि शौरसेनी प्राकृत मध्य-देश में बोली जाती थी; किन्तु प्रो० व्यास का यह कथन कि सम्पूर्ण भारत में इसके माध्यम से साहित्य सृजन होता रहा है, साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर मात्र एक अतिशयोक्ति से अधिक कुछ नहीं है, क्योंकि नाटकों के शौरसेनी अंशों को छोड़कर हमें शौरसेनी प्राकृत में कोई भी धर्म या सम्प्रदाय निरपेक्ष सम्पूर्ण ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। शौरसेनी प्राकृत में जो भी ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, वे मात्र जैनों के दिगम्बर और यापनीय सम्प्रदायों के हैं। यह ठीक है कि इन सम्प्रदायों के आचार्यों ने चाहे वे उत्तर भारत के हों या दक्षिण भारत के, शौरसेनी प्राकृत में ही अपने ग्रन्थ लिखे थे; किन्तु हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि उसी काल में श्वेताम्बर जैन आचार्य अर्धमागधी या अर्धमागधी प्रभावित महाराष्ट्री प्राकृत में अपनी धार्मिक एवं साहित्यिक कृतियों की रचना कर रहे थे। मात्र इतना ही नहीं, उसी काल में धर्म एवं सम्प्रदाय निरपेक्ष साहित्यिक कृतियों की रचना भी महाराष्ट्री प्राकृत में हो रही थी। जहाँ शौरसेनी प्राकृत में सम्प्रदाय निरपेक्ष साहित्यिक ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं, वहीं महाराष्ट्री प्राकृत में ऐसे अनेकों ग्रन्थ उपलब्ध हैं। इससे यही फलित होता है कि धर्म-निरपेक्ष साहित्यिक कृतियों की रचना की दृष्टि से महाराष्ट्री प्राकृत ही अधिक प्रचलन में थी। आज शौरसेनी प्राकृत की अपेक्षा महाराष्ट्री प्राकृत के अधिक व्यापक होने का प्रमाण है। अत: यह मानना होगा कि शौरसेनी की अपेक्षा महाराष्ट्री प्राकृत अधिक व्यापक रही है और उसके माध्यम से धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष दोनों ही प्रकार के साहित्य का सृजन भारत में होता रहा है।
३. "शौरसेनी प्राकृत ही सभी प्राकृतों एवं अन्य भाषाओं की जननी है।"
इस प्रश्न के सम्बन्ध में भी हम अपने पूर्व लेखों में विस्तार से चर्चा कर चुके हैं। सत्य तो यह है कि सभी प्राकृतें अपनी-अपनी क्षेत्रीय बोलियों से विकसित हुई हैं और इसलिए यह कहना किसी भी स्थिति में युक्तिसंगत नहीं है कि शौरसेनी प्राकृत ही सभी प्राकृतों या अन्य भाषाओं की जननी है। किसी भी एक प्राकृत को दूसरी प्राकृत से उत्पन्न हुआ मानना एक भ्रान्ति है। सभी साहित्यिक प्राकृतें अपनी-अपनी क्षेत्रीय बोलियों के संस्कारित रूप हैं। प्रत्येक क्षेत्रीय बोली की उच्चारणगत अपनी विशेषता होती है, जो उस क्षेत्र की भाषा की भी विशेषता बन जाती है। ये उच्चारणगत क्षेत्रीय विशेषताएँ प्रत्येक क्षेत्र की निजी होती हैं, वे किसी भी दूसरे क्षेत्र के प्रभाव से उत्पन्न नहीं होती हैं। अत: प्रत्येक प्राकृत्त अपनी-अपनी विशेषताओं के साथ अपनी क्षेत्रीय
१. "जैन आगमों की मूल भाषा अर्धमागधी या शौरसेनी', डॉ० सागरमल जैन,
जिनवाणी, सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर, अंक-अप्रैल, मई, जून एवं सितम्बर अंक १९९८। ज्ञातव्य है कि यह लेख इस कृति में भी इसी नाम से प्रकाशित है।
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५१ बोली से जन्म लेती है, किसी दूसरी प्राकृत से नहीं। जैसे मारवाड़ी, मेवाड़ी, मालवी, बुन्देली, ब्रज, अवधी, भोजपुरी, मैथिली आदि बोलियों को किसी एक बोली विशेष से या हिन्दी से उत्पन्न मानना अवैज्ञानिक है एवं एक भ्रान्ति है और कोई भी भाषाशास्त्री इस तथ्य को स्वीकार नहीं करेगा; वैसे ही किसी एक प्राकृत विशेष को भी दूसरी प्राकृत से या संस्कृत से उत्पन्न मानना भी एक भ्रान्ति है।
४. "पहले दो प्राकृतें थीं शौरसेनी और मागधी; महाराष्ट्री प्राकृत पूरी तरह से शौरसेनी का ही परवर्ती रूप है। महाराष्ट्री प्राकृत का मैं कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं मानता।"
प्रथम तो यह कहना कि महाराष्ट्री प्राकृत शौरसेनी का ही परवर्ती रूप है, उचित नहीं है, क्योंकि शौरसेनी और महाराष्ट्री आदि सभी प्राकृतों की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं, जहाँ शौरसेनी प्राकृत में मध्यवर्ती 'त' का 'द्' में परिवर्तन होता है वहाँ महाराष्ट्री प्राकृत में लुप्त व्यञ्जनों की 'य'-श्रुति होती है। पुन: शौरसेनी की अपेक्षा महाराष्ट्री प्राकृत कोमल और कान्त है वहाँ शौरसेनी कठोर पदावलियों से युक्त है, यथा- “वद्धमान' का वड्डमाण'। पुन: जब दोनों की अपनी-अपनी लक्षणगत भिन्नता है, तो फिर यह कहना कि मैं महाराष्ट्री प्राकृत का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं मानता हूँ, उचित नहीं है। .
आज यदि प्राकृतों में किसी प्राकृत का सर्वाधिक साहित्य है तो वह महाराष्ट्री प्राकृत का ही है। महाराष्ट्री प्राकृत के साहित्य की तुलना में शेष सभी प्राकृतों का साहित्य तो दशमांश भी नहीं है, जिसमें ९० प्रतिशत साहित्य हो उस प्राकृत का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं मानना, केवल पक्षाग्रह का ही सूचक है। पुन: यदि महाराष्ट्री और शौरसेनी में अन्तर नहीं है तो फिर शौरसेनी नाम का आग्रह ही क्यों? आज एक भी ऐसा साहित्यिक एवं पुरातात्त्विक प्रमाण नहीं है, जिससे यह सिद्ध हो सके कि शौरसेनी प्राचीन है और महाराष्ट्री परवर्ती है। अश्वघोष या भास के नाटकों से अर्थात् ईस्वी सन् की दूसरी शती से पूर्व का एक भी साहित्यिक या अभिलेखीय प्रमाण उपलब्ध नहीं है, जिसके आधार पर शौरसेनी की अन्य प्राकृतों से प्राचीनता सिद्ध हो सके जबकि सातवाहन हाल की महाराष्ट्री प्राकृत में रचित 'गाथासप्तशती' उनसे प्राचीन है, क्योंकि सातवाहन हाल का काल प्रथम शती माना जाता है। मात्र यही नहीं, 'गाथासप्तशती' भी एक संग्रह ग्रन्थ है और इसकी अनेकों गाथाएँ उससे भी पूर्व रचित हैं अत: परवर्ती भाषा महाराष्ट्री नहीं, शौरसेनी ही है।
५. "अर्धमागधी प्राकृत जो मात्र श्वेताम्बर जैन आगमों में मिलती है, का आधार शौरसेनी प्राकृत ही है।"
इस सम्बन्ध में भी विस्तार से चर्चा मैं इसी ग्रन्थ में प्रकाशित अपने स्वतन्त्र १. वही, अंक जून १९९८, पृ० २३-२८
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लेख 'आगमों की मूल भाषा शौरसेनी या अर्धमागधी' में कर चुका हूँ। यह ठीक है कि अर्धमागधी में मागधी के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रीय बोलियों के शब्द रूप भी मिलते हैं। यद्यपि अर्धमागधी में अनेक स्थानों पर 'र्' का 'लू' विकल्प से तो होता ही है, किन्तु इसमें मागधी के कुछ लक्षण जैसे सर्वत्र “र्” का “ल्”, “स्" का "श" नहीं मिलते हैं; फिर भी यह सुनिश्चित सत्य है कि भगवान् महावीर के वचनों के आधार पर सर्वप्रथम इसी अर्धमागधी प्राकृत में आगम और आगमतुल्य ग्रन्थों की रचना हुई है । ऐसी स्थिति में यह कहने का क्या अर्थ है कि अर्धमागधी प्राकृत का आधार शौरसेनी प्राकृत है। इसके विपरीत सिद्ध तो यही होता है कि शौरसेनी प्राकृत का आधार अर्धमागधी है, क्योंकि शौरसेनी आगमों में अर्धमागधी आगमों और महाराष्ट्री के हजारों शब्द-रूप ही नहीं, अपितु हजारों गाथाएँ भी मिलती हैं, इसकी सप्रमाण चर्चा भी हम अपने पूर्व लेख में कर चुके हैं।
पुनः आगमिक उल्लेखों से भी यही प्रमाणित होता है कि भगवान् महावीर ने अपने प्रवचन अर्धमागधी प्राकृत में दिये थे और उन्हीं के आधार पर गणधरों ने उसी भाषा में ग्रन्थ रचना की थी। भगवान् महावीर और उनके गणधरों की मातृभाषा मागधी थी, न कि शौरसेनी, क्योंकि वे सभी मगध में ही जन्मे थे। क्या प्रो० व्यासजी भाषाशास्त्रीय, साहित्यिक या अभिलेखीय प्रमाणों से यह सिद्ध कर सकते हैं कि श्वेताम्बर आगमों की अर्धमागधी प्राकृत का आधार शौरसेनी प्राकृत या उसमें रचित ग्रन्थ हैं ?
उपलब्ध अर्धमागधी आगमों यथा आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, ऋषिभाषित आदि को पाश्चात्य एवं पौर्वात्य सभी विद्वानों ने ईस्वी पूर्व की रचनाएँ मानी हैं, जबकि कोई भी शौरसेनी आगम ईसा की तीसरी चौथी शती के पूर्व का नहीं है। इससे सिद्ध यही होता है कि शौरसेनी आगसों का आधार अर्धमागधी आगम है। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने 'प्राकृत व्याकरण' में शौरसेनी प्राकृत के विशिष्ट लक्षणों की चर्चा करने के बाद अन्त में यह कहा - 'शेषं प्राकृतवत्, इस सूत्र से क्या यही सिद्ध किया जाय कि शौरसेनी प्राकृत का आधार महाराष्ट्री प्राकृत है। ज्ञातव्य है कि हेमचन्द्र का 'प्राकृत' से तात्पर्य 'महाराष्ट्री प्राकृत' ही है, क्योंकि उन्होंने प्राकृत के नाम से महाराष्ट्री प्राकृत का ही व्याकरण लिखा है।
६. "शौरसेनी प्राकृत के प्राचीनतम रूप सम्राट् अशोक के गिरनार के शिलालेख में मिलते हैं।'
इस सम्बन्ध में भी विस्तृत विवेचन हम अपने स्वतन्त्र लेख 'अशोक के अभिलेखों की भाषा मागधी या शौरसेनी' में कर रहे हैं। सभी विद्वानों ने एक स्वर से इस तथ्य को स्वीकार किया है कि अशोक के अभिलेखों की भाषा मागधी या आर्षप्राकृत ही है,
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५३
यद्यपि अभिलेखों पर तत्-तत् क्षेत्र की बोलियों का किञ्चित् प्रभाव देखा जाता है। शौरसेनी प्राकृत के जो दो विशिष्ट लक्षण माने जाते हैं-- मध्यवर्ती "त्" के स्थान पर “द्"
और दन्त्य "न्" के स्थान पर मूर्धन्य “ण्' - ये दोनों लक्षण अशोक के किसी भी अभिलेख में प्राय: नहीं पाये जाते हैं। अत: हमें अशोक के भित्र-भिन्न अभिलेखों की भाषा को तत्-तत् प्रदेशों की क्षेत्रीय बोलियों से प्रभावित मागधी ही मानना होगा। इन क्षेत्रीय बोलियों के प्रभाव के आधार पर उसे अर्धमागधी के निकट तो कह सकते हैं; किन्तु शौरसेनी कदापि नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि उनमें शौरसेनी का कोई भी विशिष्ट लक्षण नहीं पाया जाता है। एक दो अपवादों को छोड़कर अशोक के अभिलेखों में न तो कहीं मध्यवर्ती "त्" का "दपाया जाता है और न कहीं दन्त्य "न" के स्थान पर मूर्धन्य “ण” का प्रयोग मिलता है। उनमें सर्वत्र ही दन्त्य “न्' का प्रयोग देखा जाता है।
__जहाँ तक प्रो० व्यासजी के इस कथन का प्रश्न है कि "शौरसेनी प्राकृत के प्राचीनतम रूप सम्राट अशोक के गिरनार के शिलालेख में मिलते हैं' इस विषय में हम उनसे यही जानना चाहेंगे कि क्या गिरनार के किसी भी शिलालेख में मध्यवर्ती "त्' के स्थान पर “द्' का प्रयोग हुआ है? जहाँ तक मूर्धन्य “ण” का प्रश्न है वह शौरसेनी और महाराष्ट्री दोनों में समान रूप से ही पाया जाता है फिर भी उसका अशोक के अभिलेखों में कहीं प्रयोग नहीं हुआ है। हम उनसे साग्रह निवेदन करना चाहेंगे कि वे गिरनार के अभिलेखों में उन शब्द-रूपों को छोड़कर जो शौरसेनी और महाराष्ट्री दोनों में ही पाये जाते हैं, शौरसेनी के विशिष्ट लक्षणयुक्त शब्द-रूप दिखायें जो अर्धमागधी और महाराष्ट्री के शब्द-रूपों से भिन्न हों और मात्र शौरसेनी की विशिष्टता को लिये हुए हों।
यहाँ पर हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि गिरनार का क्षेत्र तो महाराष्ट्री प्राकृत का क्षेत्र है। गिरनार के अभिलेखों में जिन्हें वे शौरसेनी प्राकृत के शब्द-रूप मान रहे हैं वे वस्तुत: महाराष्ट्री प्राकृत के शब्द-रूप हैं। अत: गिरनार के अभिलेखों की भाषा को शौरसेनी प्राकृत नहीं माना जा सकता है। पुनः गिरनार की बात तो दूर रही स्वयं शौरसेनी प्राकृत के क्षेत्र देहली-टोपरा के अशोक के अभिलेखों में कहीं भी शौरसेनी के विशिष्ट लक्षण नहीं पाये जाते हैं अपितु वहाँ पर 'लाजा' जैसे मागधी रूप ही मिलते हैं। फिर वे किस आधार पर यह कहते हैं कि गिरनार के शिलालेखों में शौरसेनी प्राकृत के प्राचीनतम रूप मिलते हैं।
७. "इसी क्रम में आगे प्रो० व्यासजी कहते हैं- इसके बाद परिशुद्ध शौरसेनी भाषा 'कसायपाहुडसुत्त', 'छक्खण्डागमसुत्त', कुन्दकुन्द साहित्य एवं 'धवला', 'जयधवला' आदि में प्रयुक्त मिलती है।"
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प्रो० व्यासजी ने उपरोक्त ग्रन्थों की भाषा को परिशुद्ध शौरसेनी कहा है। मैं प्रो० व्यासजी से अत्यन्त विनम्र शब्दों में यह पूछना चाहूँगा कि क्या इन ग्रन्थों के शब्द-रूपों का भाषाशास्त्रीय दृष्टि से उन्होंने कोई विश्लेषण किया हैं ? क्या इन ग्रन्थों के सन्दर्भ में उनका अध्ययन प्रो० उपाध्ये और प्रो० खडबडी जैसे दिगम्बर- परम्परा के मूर्धन्य विद्वानों की अपेक्षा भी अधिक गहन है । आज तक किसी भी विद्वान् ने दिगम्बर आगमों की भाषा को परिशुद्ध शौरसेनी नहीं माना है। प्रो० ए०एन० उपाध्ये ने 'प्रवचनसार ' की भूमिका में स्पष्ट रूप से यह स्वीकार किया है कि उसकी (प्रवचनसार की) भाषा पर अर्धमागधी का प्रभाव है। प्रो० खड़बड़ी छक्खण्डागम की भाषा को भी शुद्ध शौरसेनी नहीं मानते हैं और उस पर अर्धमागधी का प्रभाव बताते हैं। यदि हम इन सभी ग्रन्थों के शब्द रूपों का भाषाशास्त्रीय दृष्टि से विश्लेषण करें तो स्पष्ट रूप से हमें एक दो नहीं परन्तु सैकड़ों और हजारों शब्द-रूप महाराष्ट्री और अर्धमागधी प्राकृत के मिलेंगे !
मैंने अपने पूर्व लेख 'जैन आगमों की मूल भाषा अर्धमागधी या शौरसेनी' में विस्तार से इस सम्बन्ध में भी चर्चा की है।" प्रो० व्यासजी जिसे परिशुद्ध शौरसेनी कह रहे हैं वह तो अर्धमागधी, शौरसेनी और महाराष्ट्री की एक प्रकार की खिचड़ी है। शौरसेनी के प्रत्येक ग्रन्थ में इन विभिन्न प्राकृतों का अनुपात भी भिन्न-भिन्न पाया जाता है।
८. "बौद्ध ग्रन्थों की पालि भाषा भी मूलतः शौरसेनी प्राकृत ही थी, जिसे कृत्रिम रूप से संस्कृतनिष्ठ बनाकर पूर्व - देशीय प्रभावों के साथ पालि रूप दिया
गया! "
बौद्ध ग्रन्थों की मूल भाषा क्या थी और उसे किस प्रकार पालि में रूपान्तरित किया गया, इसकी भी विस्तृत सप्रमाण समीक्षा हम अपने "जैन आगमों की मूल भाषा अर्धमागधी या शौरसेनी" नामक लेख में कर चुके हैं।" उस लेख में हमने स्पष्ट रूप से यह बताने का प्रयास किया है कि भगवान् बुद्ध का कार्यक्षेत्र मुख्यतः मगध और उसका समीपवर्ती प्रदेश रहा है। उन्होंने उनकी मातृभाषा मागधी में ही अपने उपदेश दिये थे और उनके उपदेशों का प्रथम संकलन भी मागधी में ही हुआ था। यह सत्य है कि कालान्तर में उसे संस्कृत के निकटवर्ती बनाकर पालि रूप दिया गया; किन्तु उसे किसी भी रूप में शौरसेनी प्राकृत नहीं कहा जा सकता है। उसे खींचतान कर शौरसेनी बताने का प्रयत्न एक दुराग्रह मात्र ही होगा।
९. "मैं शौरसेनी को ही मूल प्राकृत भाषा मानता हूँ।"
हमें यहाँ प्रो० व्यासजी के द्वारा खड़ी की गयी इस भ्रान्ति का निराकरण करना होगा कि सभी प्राकृतें शौरसेनीजन्य हैं। अपने व्याख्यान में वे एक स्थान पर कहते हैं १ - २. जैन आगमों की मूल भाषा अर्धमागधी या शौरसेनी, डॉ० सागरमल जैन, जिनवाणी, सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर, अंक अप्रैल, मई, जून १९९८.
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कि "शौरसेनी प्राकृत ही मूल प्राकृत थी और इसकी समवर्ती मागधी प्राकृत इसी का क्षेत्रीय संस्करण थी । " पुनः वे कहते हैं कि "परवर्ती महाराष्ट्री प्राकृत पूरी तरह से शौरसेनी का ही परिवर्तित रूप है, महाराष्ट्री प्राकृत का स्वतन्त्र अस्तित्व मैं नहीं मानता।” पुनः वे कहते हैं कि अर्धमागधी प्राकृत जो कि मात्र श्वेताम्बर जैन आगम ग्रन्थों में मिलती है उसका आधार भी शौरसेनी प्राकृत ही है। इसी क्रम में आगे वे कहते हैं कि "बौद्ध ग्रन्थों की पालि भाषा भी मूलतः शौरसेनी प्राकृत ही है।" उनके इन सब कथनों का निष्कर्ष तो यह है कि मागधी भी शौरसेनी है, महाराष्ट्री भी शौरसेनी है, अर्धमागधी भी शौरसेनी है और पालि भी शौरसेनी है। यदि मागधी, पालि, अर्धमागधी और महाराष्ट्री सभी शौरसेनी हैं, तो फिर यह सब अलग-अलग भाषाएँ क्यों मानी जाती हैं और व्याकरण-ग्रन्थों में इनके अलग-अलग लक्षण क्यों निर्धारित किये गये हैं? मागधी, शौरसेनी, आदि सभी प्राकृतों के अपने विशिष्ट लक्षण हैं, जो उससे भिन्न अन्य प्राकृत में नहीं मिलते हैं, फिर वे सब एक कैसे कही जा सकती हैं। यदि मागधी, पालि, अर्धमागधी और महाराष्ट्री सभी शौरसेनी हैं तो इन सभी के विशिष्ट लक्षणों को भी शौरसेनी के ही लक्षण मानने होंगे और ऐसी स्थिति में शौरसेनी का कोई भी विशिष्ट लक्षण नहीं रह जायेगा; किन्तु क्या शौरसेनी के विशिष्ट लक्षणों के अभाव में उसे शौरसेनी नाम भी दिया जा सकेगा? वह तो परिशुद्ध शौरसेनी न हो करके मागधी, पालि, अर्धमागधी, शौरसेनी और महाराष्ट्री की ऐसी खिचड़ी होगी जिसे शौरसेनी न कहकर अर्धमागधी कहना ही उचित होगा, क्योंकि अर्धमागधी का ही यह लक्षण बताया गया है। ज्ञातव्य है कि अर्धमागधी का लक्षण यही है कि उसमें मागधी के साथ-साथ अन्य क्षेत्रीय बोलियों के शब्द रूप भी पाये जाते हैं।
१०. "मैं शौरसेनी को ही मूल प्राकृत मानता हूँ, मागधी भी लगभग इतनी ही प्राचीन है, परन्तु वस्तुतः उसमें पूर्वी उच्चारण- भेद के अतिरिक्त कोई अन्तर नहीं है। मूलतः यह भी शौरसेनी ही है।"
मैं प्रो० व्यासजी से सविनय यह पूछना चाहूँगा कि यदि शौरसेनी ही मूल प्राकृत भाषा है तो क्या इसका कोई अभिलेखीय या साहित्यिक प्रमाण है ? 'प्रकृतिः शौरसेनी' के जिस सूत्र को लेकर शौरसेनी को मूल प्राकृत भाषा कहा जा रहा है उसमें 'प्रकृति' शब्द का क्या अर्थ है इसकी विस्तृत समीक्षा भी हम पूर्व लेख "जैन आगमों की मूल भाषा अर्धमागधी या शौरसेनी" में कर चुके हैं।
पुनः प्रो० व्यासजी का यह कथन कि मागधी भी लगभग इतनी ही प्राचीन है, यही सिद्ध करता है कि मागधी प्राकृत शौरसेनी से उत्पन्न नहीं हुई है। प्रो० व्यासजी दबी जबान से यह तो स्वीकार करते हैं कि 'मागधी भी इतनी ही प्राचीन है'; किन्तु वे स्पष्ट रूप से यह क्यों नहीं स्वीकार करते कि मागधी शौरसेनी की अपेक्षा प्राचीन है। अशोक के अभिलेख जो ई०पू० तीसरी शती में लिखे गये वे मागधी की प्राचीनता
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________________ को स्पष्ट रूप से उजागर कर रहे हैं, जबकि शौरसेनी का कोई भी ग्रन्थ या ग्रन्थांश ई० सन् की प्रथम-दूसरी शती के पूर्व का नहीं है। यदि साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर मागधी प्राकृत शौरसेनी की अपेक्षा कम से कम 300 वर्ष प्राचीन है, तो फिर यह मानना होगा कि वह मागधी ही मूल प्राकृत भाषा है। पन: प्रो० व्यासजी का यह कथन कि “पूर्वीय उच्चारण-भेद के अतिरिक्त मागधी और शौरसेनी में कोई अन्तर नहीं है। यह कथन मूलत:- वह भी शौरसेनी ही है", युक्तिसंगत नहीं है। हमें यह ध्यान रखना होगा कि उच्चारण-भेद और प्रत्ययों के भेद ही विभिन्न प्राकृतों के अन्तर का आधार है। यदि भेद नहीं होते तो फिर विभिन्न प्राकृतों में कोई अन्तर किया ही नहीं किया जा सकता था और सभी प्राकृतें एक ही होती। वस्तुतः प्राकृत के मागधी, पालि, अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री आदि जो विविध भेद हैं वे अपने-अपने क्षेत्रीय उच्चारण-भेद और प्रत्यय-भेद के आधार पर ही स्थित हैं। अत: यह तो कहा जा सकता है कि मागधी, पालि, अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री आदि सभी मूलत: प्राकृते हैं; किन्तु यह नहीं कहा जा सकता है कि मागधी आदि भी शौरसेनी हैं। इनकी अपनी-अपनी लाक्षणिक भित्रताएँ हैं; अत: यह नहीं कहा जा सकता कि मागधी भी शौरसेनी है या शौरसेनी का क्षेत्रीय संस्करण है। जिस प्रकार मागधी, पालि, अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री आदि प्राकृत के विभिन्न भेद हैं उसी प्रकार शौरसेनी भी प्राकृत का ही एक भेद है। पुन: यह भी स्मरण रखना चाहिए कि दिगम्बर जैन आगमों की शौरसेनी परिशुद्ध शौरसेनी न होकर अर्धमागधी और महाराष्ट्री से प्रभावित शौरसेनी है और इसीलिए पाश्चात्य विद्वानों ने उसे जैन शौरसेनी नाम दिया है। मैं "प्राकृतविद्या के सम्पादक डॉ० सुदीपजी जैन से निवेदन करना चाहँगा कि वे प्रो० टाँटियाजी और प्रो० भोलाशंकर व्यासजी के नाम पर शौरसेनी की सर्वोपरिता की थोथी मान्यता स्थापित करने हेतु प्राकृत-प्रेमियों के बीच खाईं न खोदें। वस्तुतः यदि प्राकृत-प्रेमी पालि, अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री की सर्वोपरिता के नाम पर आपस में लड़ने लगेंगे तो इससे प्राकृतविद्या की ही दुर्गति होगी। आज आवश्यकता है मिल-जुल कर समवेतरूप से प्राकृतविद्या के विकास की, न कि प्राकृत के इन क्षेत्रीय भेदों के नाम पर लड़कर अपनी शक्ति को समाप्त करने की। आशा है प्राकृतविद्या के सम्पादक को इस सत्यता का बोध होगा और वे प्राकृत-प्रेमियों को आपस में न लड़ाकर प्राकृतों के विकास का कार्य करेंगे।