Book Title: Prakrit Vidya me Pro Tatiyaji ke Nam se Prakashit Unke Vyakhyan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_5_001688.pdf

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Page 9
________________ हरिभद्र आठवीं शताब्दी के विद्वान् हैं। सत्य तो यह है कि हरिभद्रसूरि के 'योगशतक' से धवलाकार ने लिया है, अत: टॉटियाजी जैसे विद्वान् के नाम से ऐतिहासिक सत्य को भी उलट देना कहाँ तक उचित है ? धवलाकार ही हरिभद्रसूरि के ऋणी हैं, हरिभद्रसूरि धवलाकार के ऋणी नहीं हैं। ४५ यह सत्य है कि 'धवला' में अनेक बातें संकलित कर ली गयी हैं; किन्तु अनेक तथ्यों का संकलन करने मात्र से कोई ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण नहीं बन जाता है। पुन: यह कहना कि 'धवला' में क्या नहीं है, एक अतिशयोक्तिपूर्ण कथन के अलावा कुछ नहीं है। जैन विद्या के अनेक पक्ष ऐसे हैं जिनकी 'धवला' में कोई चर्चा ही नहीं है। 'धवला' मूलतः 'षट्खण्डागम' की टीका है, जो जैन कर्म - सिद्धान्त का ग्रन्थ है अतः उसका भी मूल प्रतिपाद्य तो जैन कर्म सिद्धान्त ही है, अन्य विषय तो प्रसंगवश समाहित कर लिये गये हैं। 'धवला' में क्या नहीं है? इस कथन का यह आशय लगा लेना कि 'धवला' में सब कुछ है, एक भ्रान्ति होगी । 'प्रवचनसारोद्धार' आदि अनेक श्वेताम्बर ग्रन्थों का विषय वैविध्य 'धवला' से भी अधिक है। ११. " आचार्य वीरसेन बहुश्रुत विद्वान् थे । उन्होंने समस्त दिगम्बर - श्वेताम्बर साहित्य का गहन अवलोकन किया था । " आचार्य वीरसेन एक बहुश्रुत विद्वान् थे, यह मानने में किसी को भी कोई आपत्ति नहीं है; किन्तु वही एकमात्र बहुश्रुत विद्वान् हुए हों, ऐसा भी नहीं है। दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्पराओं में ऐसे अनेक बहुश्रुत विद्वान् हुए हैं। पुनः उन्होंने श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं के साहित्य का अध्ययन किया हो, यह मानने में भी किसी को बाधा नहीं हो सकती है; किन्तु यह कहना कि उन्होंने समस्त दिगम्बर - श्वेताम्बर साहित्य का गहन अवलोकन किया था, अतिशयोक्तिपूर्ण कथन ही है। 'धवला' में ऐसे अनेक स्थल हैं, जो श्वेताम्बर - परम्परा और उसके ग्रन्थों से उनके परिचित न होने का संकेत करते हैं। साथ ही उनके काल तक श्वेताम्बर - दिगम्बर साहित्य इतना विपुल था कि उस सबका गहन अध्ययन कर लेना एक व्यक्ति के लिये किसी भी स्थिति में सम्भव नहीं था। अधिक तो क्या ? जिस यापनीय परम्परा के ग्रन्थ पर उन्होंने टीका लिखी उसकी अनेक मान्यताओं के सम्बन्ध में उन्होंने कोई संकेत तक नहीं दिया। उस युग के श्वेताम्बर आगमों, यापनीय ग्रन्थों और स्वयं अपनी ही परम्परा के आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की विषयवस्तु के सम्बन्ध में धवलाकार का ज्ञान कितना सीमित था यह तो उनकी टीका से ही स्पष्ट है। १२. "जैन दर्शन का हर विषय क्रमबद्ध (systematic) रूप में शौरसेनी साहित्य में प्राप्त होता है।" यह सत्य है कि शौरसेनी साहित्य में जैन दर्शन से सम्बन्धित जिन विषयों की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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