Book Title: Prakrit Vidya me Pro Tatiyaji ke Nam se Prakashit Unke Vyakhyan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_5_001688.pdf

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Page 17
________________ ५३ यद्यपि अभिलेखों पर तत्-तत् क्षेत्र की बोलियों का किञ्चित् प्रभाव देखा जाता है। शौरसेनी प्राकृत के जो दो विशिष्ट लक्षण माने जाते हैं-- मध्यवर्ती "त्" के स्थान पर “द्" और दन्त्य "न्" के स्थान पर मूर्धन्य “ण्' - ये दोनों लक्षण अशोक के किसी भी अभिलेख में प्राय: नहीं पाये जाते हैं। अत: हमें अशोक के भित्र-भिन्न अभिलेखों की भाषा को तत्-तत् प्रदेशों की क्षेत्रीय बोलियों से प्रभावित मागधी ही मानना होगा। इन क्षेत्रीय बोलियों के प्रभाव के आधार पर उसे अर्धमागधी के निकट तो कह सकते हैं; किन्तु शौरसेनी कदापि नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि उनमें शौरसेनी का कोई भी विशिष्ट लक्षण नहीं पाया जाता है। एक दो अपवादों को छोड़कर अशोक के अभिलेखों में न तो कहीं मध्यवर्ती "त्" का "दपाया जाता है और न कहीं दन्त्य "न" के स्थान पर मूर्धन्य “ण” का प्रयोग मिलता है। उनमें सर्वत्र ही दन्त्य “न्' का प्रयोग देखा जाता है। __जहाँ तक प्रो० व्यासजी के इस कथन का प्रश्न है कि "शौरसेनी प्राकृत के प्राचीनतम रूप सम्राट अशोक के गिरनार के शिलालेख में मिलते हैं' इस विषय में हम उनसे यही जानना चाहेंगे कि क्या गिरनार के किसी भी शिलालेख में मध्यवर्ती "त्' के स्थान पर “द्' का प्रयोग हुआ है? जहाँ तक मूर्धन्य “ण” का प्रश्न है वह शौरसेनी और महाराष्ट्री दोनों में समान रूप से ही पाया जाता है फिर भी उसका अशोक के अभिलेखों में कहीं प्रयोग नहीं हुआ है। हम उनसे साग्रह निवेदन करना चाहेंगे कि वे गिरनार के अभिलेखों में उन शब्द-रूपों को छोड़कर जो शौरसेनी और महाराष्ट्री दोनों में ही पाये जाते हैं, शौरसेनी के विशिष्ट लक्षणयुक्त शब्द-रूप दिखायें जो अर्धमागधी और महाराष्ट्री के शब्द-रूपों से भिन्न हों और मात्र शौरसेनी की विशिष्टता को लिये हुए हों। यहाँ पर हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि गिरनार का क्षेत्र तो महाराष्ट्री प्राकृत का क्षेत्र है। गिरनार के अभिलेखों में जिन्हें वे शौरसेनी प्राकृत के शब्द-रूप मान रहे हैं वे वस्तुत: महाराष्ट्री प्राकृत के शब्द-रूप हैं। अत: गिरनार के अभिलेखों की भाषा को शौरसेनी प्राकृत नहीं माना जा सकता है। पुनः गिरनार की बात तो दूर रही स्वयं शौरसेनी प्राकृत के क्षेत्र देहली-टोपरा के अशोक के अभिलेखों में कहीं भी शौरसेनी के विशिष्ट लक्षण नहीं पाये जाते हैं अपितु वहाँ पर 'लाजा' जैसे मागधी रूप ही मिलते हैं। फिर वे किस आधार पर यह कहते हैं कि गिरनार के शिलालेखों में शौरसेनी प्राकृत के प्राचीनतम रूप मिलते हैं। ७. "इसी क्रम में आगे प्रो० व्यासजी कहते हैं- इसके बाद परिशुद्ध शौरसेनी भाषा 'कसायपाहुडसुत्त', 'छक्खण्डागमसुत्त', कुन्दकुन्द साहित्य एवं 'धवला', 'जयधवला' आदि में प्रयुक्त मिलती है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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