Book Title: Prakrit Vakyarachna Bodh
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 610
________________ परिशिष्ट ७ ५६३ (२३) क्षीणं-छीणं (२६) अनुस्वार के पूर्व के दीर्घ का ह्रस्ववैदिक प्राकृत युवाम्-युवम् मांस-मंस (प्रा- ११७०) (ऋ. सं. १११५-६) पांसु-पंसू कांस्य-कंस मालाम्-मालं (२७) विसर्ग का ओवैदिक प्राकृत सः चित्-सो चित् देवः अस्ति-देवो अस्थि (ऋ. वे. पृ. १११२) सर्वतः-सव्वओ संवत्सरः अजायत-संवत्सरो पुरत:-पुरओ अजायत मागतः-मग्गओ (ऋ. सं. १-१६१-१०-११) (प्रा० ११३७) आपः अस्मान्-आपो अस्मान् पुनः एति--पुणो एति (वै. प्र. ६।१।११७) (२८) ह्रस्व को दीर्घ तथा दीर्घ को ह्रस्व प्राकृत एव-एवा अहवा-अहवा (अथवा) अच्छ-अच्छा एक-एवा (एव) (4. प्र. ६।३।१३६) जह-जहा (यथा) ध--धा तह-तहा (तथा) मक्षु-मक्ष (११६७) चतुरन्त-चाउरंत अत्र---अत्रा परकीय--पारक्क यत्र-यत्रा विश्वास-वीसास पुरुष--पूरुष मनुष्य-मणूस दुर्दभ-दूदभ मिश्र-मीस दुर्लभ-दूलभ पश्य-पास (ऋ. संस्कृत ४६८) (१।४३) (२६) अक्षरों का व्यत्ययवैदिक प्राकृत निसृकर्त्य-निष्टयं आलान-आणाल वैदिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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