Book Title: Prakrit Vakyarachna Bodh
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 608
________________ परिशिष्ट ७ ( निरुक्त पृ. ३८७,४३) पृथुजव:- पृथुज्रयः इन रूपों में अभूतपूर्व र का आगम हुआ है । (१८) क तथा च का लोप वैदिक याचामि यामि निरुक्त पृ. १००, २४१ अन्तिक अन्ति ऋग्वेद पृ. ४६६ (१६) आन्तर अक्षर का लोप वैदिक शतक्रतवः- - शतक्रत्व पशवे - पश्वे ( वै. प्र० ७ ३६७) निविविशिरे - निविविश्रे (ऋ.सं. ८१०१।१८ ) तन्वम् —— तनुवम् ( तै. आ. ७।२२।१) स्वर्गः–सुवर्गः (Â. AT. YIRIE) विभ्वम् - विभुवम् सुध्यो- सुधियो रात्र्या - - रात्रिया सहस्य :-- सहस्रिय: (यजुर्वेद ) (२१) ऋ को र तथा उ वैदिक ऋजिष्ठम् -- रजिष्ठम् आगत: ---- - आता: ( निरुक्त पृ. १४२ ) (२०) संयुक्त व्यंजनों के मध्य में स्वरों का आगम वैदिक प्राकृत Jain Education International तथा चैत्य का चैत्र जैसे रूपों में र का आगम हुआ है । ( प्रा. ४ | ३६६ ) प्राकृत कचग्रह-- कयग्गह शची - सई लोक—लोअ ( प्रा. १११७७ ) प्राकृत राजकुल-- राउल प्राकार -- पार व्याकरण-वारण } दुर्गादेवी - दुग्गावी आगत-आय एवमेव - - एमेव अर्हन्—अरुहंत लघ्वी - लघुवी तन्वी - तणुवी पद्मं --- उमं मुक्खो - मुरुक्खो क्रिया - किरिया ह्री-हिरी गर्हा गरिहा श्री -- सिरी प्राकृत ऋद्धि-रिद्धि For Private & Personal Use Only (११२६७ ) (११२६८) ५६१ (११२७० ) (१।२६८) (१।२७१) (२१११) (२/११३) "" (२११२) (२।१०४) " "1 11 (81880) www.jainelibrary.org

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