Book Title: Paumappahasami Cariyam
Author(s): Devsuri, Rupendrakumar Pagariya
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 7
________________ कर प्राकृत साहित्य की अभिवृद्धि की है । इन में कुछ चरित्रग्रन्थ प्रकाशित हुए है और कुछ आज भी अप्रकाशित स्थिति में ज्ञान भण्डारों की शोभा बढ़ा रहे हैं । ला. द.भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर का एक उद्देश्य रहा है कि अप्रकाशित प्राकृत और संस्कृत के मूल ग्रन्थों का सम्पादन, संशोधन और अनुवादित कर उन्हें प्रकाशित करना, एवं प्राचीन ग्रन्थों के विशिष्ट अध्येताओं को प्रोत्साहित करना । उसी के अन्तर्गत आ. देवसूरी द्वारा रचित पद्म प्रभ चरित्र का यह संशोधित प्रकाशन हो रहा है। पद्मप्रभचरित्र मध्यकालीन चरित्रग्रन्थों की एक महत्वपूर्ण कृति है। इनके कर्ता जालिहरगच्छीय विद्वान आचार्य देवसूरि हैं । इन्होंने वि.सं.१२५४ में वढवाण नगर गुजरात में भीमदेव के राज्यकाल में पज्जुन श्रेष्ठी की वसति मे रहकर विदयलक्खन की प्रार्थना से इस चरित ग्रन्थ की रचना की । यह ग्रन्थ गद्य-पद्यामय है । इसका रचना परिमाण ८००० श्लोक है । यह पांच अवसरों में विभक्त है । अब तक के उपलब्ध पद्मप्रभ चरित्र में यह सबसे बडा है । इस ग्रन्थ के प्रथम अवसर में भ. पद्मप्रभ के पूर्वभव का वर्णन है और शेष में उनके वर्तमान जन्म का। प्रथम अवसर में पद्मप्रभ के पूर्व जन्म अपराजित से देव भव तक का विस्तार से वर्णन करते हुए बतलाया है कि किस प्रकार उन्होंने अपराजित राजा के भव में सम्यक्त्व और संयम की कठोर साधना से अपने व्यक्तित्व का विकास किया और तीर्थंकर प्रकृति का बन्धकर तीर्थंकर पद को प्राप्त किया । दूसरे अवसर में देव भव और देव भव के पश्चात् तीर्थंकरत्व के रूप में उनका जन्म, एवं देवों और मानवों द्वारा किये गये जन्मोत्सव, नामकरण, विवाह, राज्यारोहन, वर्षीदान, महानिष्क्रमण एवं केवलज्ञान का वर्णन है । तृतीय और चतुर्थ अवसर में भगवान की धर्मदेशना, उनके द्वारा संघस्थापन विविध देशों में विहार करते हुए अपनी अमोघ देशना द्वारा भव्यों को प्रतिबोध एवं पंचम अवसरमें उनके निर्वाण का विशद विवेचन है । इस ग्रन्थ की भाषा महाराष्ट्रीय प्राकृत है । भाषा सरल, प्रौढ तथा परिमार्जित है । इसकी गाथाएँ आर्या छंद में है। कहीं-कहीं कवि ने अत्यल्प मात्रा में कवि ने अत्यल्प मात्रामें वसन्ततिलका. शार्दलविक्रीडित स्त्रग्धरा. अनष्टप आदि छंदों का भी उपयोग किया है ।भगवान के जन्म का (पृ. १७३ - से १७७ तक) वर्णन अपभ्रंशभाषा में है । पद्मप्रभ के पूर्वभवमें अपराजित राजा ने अपने धर्मोपदेशक आचार्य से उनकी दीक्षा का कारण पूछा तो आचार्य ने अपने जीवन की रूपक द्वारा अन्तरंग कथा कह सुनाई, यह अन्तरंग कथा (उपमिति भव प्रपंचा कथा की अन्तरंग कथा का संक्षिप्त रूप है, । रचना श्लेषपूर्ण प्रौढ संस्कृत में है । इस कथानक में सुक्तियों का एवं लोकोक्तियों का प्रचुरमात्रा में उपयोग किया है । इस चरितकाव्य में धर्म, कथा, काव्य और दर्शन का एक साथ समन्वित रूप विद्यमान है । इस में प्रधान रूप से धर्म के मुख्य अंग दान, शील, तप और भावना के आचरण पर विशेष भार देते हुए उन पर एक एक कथा रोचक शैली में प्रस्तुत की है । साथ ही श्रावक के बारहव्रतपर एक एक कथाओं का गुंथन कर उनके सुन्दर परिणामों का भावपूर्ण शैली में निरूपण किया है । कथानक का जितना विस्तार है उससे कहीं अधिक वर्णनों का विस्तार है । अन्धविश्वास, मिथ्यात्व, वितण्डावाद एवं क्रोधादि मानवीय विकारों का विश्लेषण तर्क पूर्ण दार्शनिक शैली में किया है । इसमें कथावस्तु के विस्तार में कथानकों का चमत्कारपूर्ण योग है । मनोरंजन के Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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