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में अग्नि प्रज्वलित की । वायुकुमार देवों ने वायु से अग्नि को प्रज्वलित किया । इन्द्र की आज्ञा से देवों ने कर्पूर कस्तुरी एवं घी के घडे चिता में डाले । अस्थियों को छोडकर जब प्रभु की देह के समस्त धातु जल गए तब मेघकुमार देवों ने जवृष्टि कर चिता को शान्त किया। भगवान की ऊपरी बायी और दाहिनी ओर की दाढे शक व ईशानेन्द्र ने नीचे के दोनों ओर की दाढे चमर और बलि इन्द्र ने ग्रहण की । अन्य इन्द्रोंने प्रभु के अन्य दांत ग्रहण किए और भक्तिपूर्वक देवों ने अस्थियां संग्रह की । उन अस्थियों को मानस्थंभ में रखकर इन्द्र ने उनकी पूजा की । पश्चात् नन्दीश्वर द्वीप जा कर. समारोह पर्वक शाश्वत अहतों का अष्टाह्निका उत्सव किया । इन्द्र ने सुधर्मा नामक सभा के मध्यभाग में मानवक स्तंभ में वजूमय गोलाकार डिब्बे में प्रभु की दाढों को रखा और उनकी शाश्वत प्रतिमा की तरह उत्तम गन्ध, धप और पष्पो से निरन्तर पजन करने लगे।
भगवान सुमतिनाथ के निर्वाण के पश्चात् ९० हजार कोटि सागर के व्यतीत होने पर भगवान पद्मप्रभ का निर्वाण हुआ । तीर्थकर चरित्र के मूल स्त्रोत
तीर्थकारों के जीवन पर प्रकाश डालने वाले प्राचीनतम ग्रन्थ जैनागम है । भ. पदमप्रभ के विषय में आगमों में अत्यल्प मात्रा में जानकारी मिलती है । वर्तमान में उपलब्ध जैनागम अंग, उपान, छेद, मूल एवं प्रकीर्णक इन पांच विभागों में विभक्त है । अंगसूत्र आचारांग, सूत्रकृताङ्ग ऋषिभासित जैसे प्राचीन आगमों में भ. पद्मप्रभ का कहीं भी नामोल्लेख नही हुआ है । स्थानाङ्ग सूत्र (४११) के पांचवे स्थान में पद्मप्रभ भ. के पांच कल्याणक चित्रा नक्षत्र में होने का एवं चतुर्थ अंग समवाय सूत्र (१०३) में उनकी उँचाई ढाईसौ धनुष की बताई है । समवायांग के १५७ वें सूत्र में जो २४ तीर्थंकर विषयक संग्रहणी गाथा है उनमें उनके विषयक निम उल्लेख मिलते है"भ. पद्मप्रभ छठे तीर्थंकर थे । उनके पिता का नाम धर एवं माता का नाम सुसीमा था। उनके पूर्वभव का नाम धर्ममित्र था । उन्होंने विजया नामकी शिबिका में बैठकर कोशाम्बी नगरी के बाहर सहस्त्राम्र उद्यान में एक हजार पुरुषों के साथ षष्ठ तप करके दीक्षा ग्रहण की थी। दूसरे दिन सोमदेव के घर भगवान ने क्षीरान्न से पारणा किया । इनके प्रथम शिष्य सुव्रत एवं प्रथम शिष्या रति थी । अपने शरीरसे बारहगुना उँचे छत्राभवृक्ष के नीचे चित्रा नक्षत्र के योग में उन्होंने केवलज्ञान-दर्शन प्राप्त किया। पांचवे अङग सत्र भर वती में एवं शेष आगमों में भ. पद्मप्रभ विषयक कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती । समवायांग सुत्र १५७ में भगवान पदमप्रभ के केवल तीन भवों का नाममात्रका उल्लेख है । आगम ग्रन्थों पर लिखी गई नियुक्तियों भाष्य चूर्णी एवं टीका में भी भ. पदमप्रभ विषयक उल्लेख अत्यल्प ही मिलते हैं ।आ. भद्रबाहु द्वारा निर्मित आवश्यक नियुक्ति में एवं उन पर आ. हरिभद्रसूरि एवं आचार्य मलयगिरि ने अपनी टीकाओं में एवं प्रवचनसारोद्धारमें सभी तीर्थंकरों के साथ भ. पदमप्रभ विषयक निम्र विवरण दिया है। वह इस प्रकार है -
१ भगवान प्रदमप्रभ के नामकी सार्थकता (१०९५) २ भगवान पद्मप्रभ का वर्ण- लाल ३ भगवान पद्मप्रभ की उंचाई- २५०. धनुष ४ जन्मस्थल- कौशाम्बी
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