Book Title: Paumappahasami Cariyam
Author(s): Devsuri, Rupendrakumar Pagariya
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 21
________________ सखा बन गये थे उनके साथ विविध क्रीडा करते हुए वे अपना शैशवकाल व्यतीत कर युवावस्था को प्राप्त हुए। दो सौ पचास धनुष दीर्घ प्रभु यद्यपि वैरागी थे फिर भी माता पिता की इच्छा से उन्होंने विवाह किया । जन्म से साडे सात लाख वर्ष अतिक्रान्त होने पर उन्होंने पिता के अनुरोध से राज्यभार ग्रहण किया। मंगल निधान पद्मप्रभु ने अक्षुण्ण प्रताप से साडे ईक्कीस लाख पूर्व सोलह पूर्वांग वर्ष तक पृथ्वी पर शासन किया । संसार से विरक्त हो कर जब उन्होंने दीक्षा लेने का विचार किया तो सारस्वत आदि नौ लौकान्तिक देव उनके पास आये और दीक्षा लेने के लिए प्रार्थना की । भगवान ने एक वर्ष तक शक्र के आदेश से कुबेर द्वारा प्रेरित और जृम्भक देवों द्वारा लाए धन को दान में दिया । वर्ष के अन्त में इन्द्र आये और प्रभु को दीक्षा पूर्व का अभिषेक नान करवाया। देवों ने उनके देह पर दिव्य सुगन्धित द्रव्य का विलेपन कर उन्हें वस्त्र एव रत्नालंकारों से विभूषित किया। शुभ देव दृष्य वस्त्र धारण कर वे शक्र के कन्धेपर हाथ रखकर और छत्र चामर धारी अन्यान्य इन्दों द्वारा परिवृत हो कर रत्नजडित निवृत्ति कर नाम की शिबिका में चढ़े। फिर देव और मनुष्यों से घिरे सहस्त्राम्रवन उद्यान में पहुंचे। वहां शिबिका से उतर कर समस्त अलंकारों को शरीर से उतार दिये और स्कन्ध पर इन्द्र द्वारा प्रदत्त देव दूष्य वस्त्र रखकर कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी के दिन चित्रा नक्षत्र में उन्होंने पंचमुष्टिक लोच किया । उन केशों को इन्द्र ने क्षीर समुद्र में फेक दिया । फिर कोलाहल शान्त कर इन्द्र सेवक की तरह एक तरफ खड़े हो गये । दो दिनों के उपवासी प्रभुने एक हजार राजाओं सहित देव असुर और मनुष्यों के सन्मुख सब प्रकार के सावायोग का त्याग कर प्रभ दीक्षित हए । भगवान को उस समय अतिदिव्य मनःपर्यवज्ञ देवादि सभी उन्हें प्रणाम कर अपने अपने स्थान पर लौट गए। ब्रह्मस्थल नगर में सोमदेव के घर खीरान ग्रहण कर भगवान ने पारणा किया । देवोंने रत्न वर्षादि पंच दिव्य प्रकट किए । विभिन्न अभिग्रहों को धारण करते हुए एवं परिषह को सहते हुए भगवान ने छ मास तक छद्मस्थ अवस्था में विचरण किया । ___छ महिने के पश्चात् त्रिलोकनाथ अप्रमादी भगवान पुनः दीक्षा स्थल सहस्त्राम्रवन में लौट आये । वहां न्यग्रोध वक्ष के नीचे प्रतिमा धारण कर ली । शक्लध्यान की परमोच्च स्थिति पर पहंचे हए भगवान ने चा कर्मों को नष्ट कर दिया। चैत्र शुक्ला पूर्णिमा के दिन षष्ठ तप की अवस्था मे चित्रा नक्षत्र के योग में भगवान को लोकालोक प्रकाशक केवल ज्ञान उत्पन्न हो गया । इन्द्रादि देवों ने भगवान का केवल ज्ञान उत्सव किया । उसके पश्चात् देव और असुरेन्दो ने चार द्वार विशिष्ट रल,स्वर्ण और रौप्य के चार प्राकार युक्त समवसरण की रचना की। भगवान ने पूर्वद्वार से प्रविष्ट हो कर तीन सहस्त्र धनुष्य उँचे चैत्यवृक्ष की प्रदक्षिणा दे कर "नमो तित्थस्स, कह कर तीर्थ को नमस्कार किया। उसके बाद पूर्वाभिमुख हो कर सिंहासन पर बैठ गए । देवों ने उनकी अन्य तीन ओर प्रतिकृति बनाई । उस समय शक्र ने भगवान को प्रणाम कर स्तुति की । शक्र के द्वारा स्तुति पूर्ण होनेपर भगवान ने उपस्थित परिषद के सामने देशना प्रारंभ की । भगवान ने कहा- "मनुष्य भव और दुर्लभ सामग्री के प्राप्त होने पर भी जो व्यक्ति प्रमाद करता है वह अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण करता है । मद्य,विषय,कषाय,निद्रा और विकथा ये पांच प्रमाद है । इनमें का एक भी प्रमाद सेवन करता है तो उस का Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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