Book Title: Paumappahasami Cariyam
Author(s): Devsuri, Rupendrakumar Pagariya
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 22
________________ परिणाम बडा भयानक होता है तो जो पांचों प्रमाद का सेवन करते है उनका तो कहना ही क्या ? संसार को अन्त - करने का अमोघ उपाय चारित्र है और चारित्र शुद्धि से ही आत्मा की शुद्धि होती है । शुद्ध आत्मा ही मोक्ष प्राप्त करता है। ___चारित्र दो प्रकार का है । एक गृहस्थ चारित्र और दूसरा अणगार चारित्र । अणगार चारित्र का पालन सब के लिए अशक्य है किन्तु गृहस्थ चारित्र का पालन सभी गृहस्थ यथाशक्ति कर सकते हैं । गृहस्थ चारित्र में अहिंसा,सत्य,अचौर्य,परदारा विवर्जन एवं अपरिग्रह ये पांच अणुव्रत,दिग्परिमाण,भोगोपभोग विवर्जन, अनर्थदण्डपरित्याग ये तीन गुणव्रत एवं सामायिक,देशावगासिकव्रत पौषधव्रत एवं अतिथिसंविभागवत ये चार शिक्षा व्रत ये बारह व्रत है । भगवान इन व्रतों का विशद विवेचन कर प्रत्येक व्रत पर एक एक कथा कहते है । प्रथम अहिंसा व्रत पर हरिवाहण राजा की द्वितीय सत्यव्रत पर ललितांग कुमार की परविभव परिहार पर वजूबाहु, की परदारविरमण व्रत पर अणन्तकीर्तिकुमारकी, परिग्रह परिमाणव्रतपर रत्नसार कुमार की, दिसि परिमाण व्रत पर शंखकुमार (की) भोगोपभोग परिमाणवत पर महापद्मकुमार की अनर्थदण्ड पर वाचालक की सामायिक व्रत पर चंद्रलेखा की देशावगासिक व्रत पर वसन्तकुमार की पौषधव्रत पर कुरुचन्द्रकुमार की अतिथिसंविभागवत पर धनसेन की कथा कही। भगवान की इस देशना को सुनकर बहुतों ने अणगार धर्म स्वीकार किया। कईयों ने सम्यक्त्व पूर्वक श्रावक धर्म ग्रहण किये । दिन का प्रथम याम बीत जाने पर प्रभु ने देशना समाप्त की और उन्ही पादपीठ पर बैठ कर धर नामक गणधर ने देशना आरंभ की । दिन का तृतीय याम बीत जाने पर उन्होंने भी अपनी देशना समाप्त की । श्रोतागण प्रभु को वन्दना-नमस्कार कर अपने अपने निवास को लौट गये । भगवान भव्य जीवों को ज्ञानदान करते हुए ग्राम,पुर,नगरादि में विहार करने लगे। उनके संघ में ३३०००० साधु, ४ लाख २० हजार साध्वियाँ २२१४ पूर्वधर, १०,००० अवधिज्ञानी, १०३०० मनपर्यवज्ञानी, १२००० केवलज्ञानी,१६१०८ वैक्रीयलब्धिधारी, ९६०० वादी, २७६००० श्रावक एवं ५०५००० श्राविकाएं थी । केवलज्ञान प्राप्त करने के पाश्चात् प्रभु छमास सोलह पूर्वांग कम एक लाख वर्ष तक सयोगी केवली अवस्था में विचरण करते रहे । अपना निर्वाण समय निकट जान कर भगवान एक हजार साधुओं के साथ सम्मेत शिखर पर गए और अनशन प्रारंभ किया। एक मास पश्चात् मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशी को जब चन्द्र चित्रा नक्षमें था तब ३०८ साधुओं सहित प्रभु पद्मप्रभने निर्वाण प्राप्त किया। भगवान ने निर्माण के समय जिन पूजा के महात्म्य को बताने वाली सिंहराज पुत्र की कथा कहीं। प्रभु के निर्वाण के समय कभी भी सुख का मुख नहीं देखनेवाले नारकी जीवों ने भी क्षणमात्र के लिए सुखानुभूति की । फिर शोकग्रस्त इन्द्र ने दिव्य जल से भगवान को स्नान करवाया और उनकी देह पर गोशीर्ष चन्दन का विलेपन किया। इसके पश्चात् उन्हें देवदूष्य वस्त्र पहराया और दिव्य रत्नमय अलंकारो से विभूषित किया । देवताओं ने अन्यमुनियों को स्नान करवा कर अंगराग कर वस्त्रालंकारादि पहनाए । फिर इन्द्र प्रभु की देह को शिबिका में रखकर गोशीर्षचंदन की काष्ट की चिता पर ले गए । देवों ने अन्यमुनियों के देह को अन्य शिबिका में रखकर गोशीर्षचन्दन काष्ठ की अन्य चिता पर ले गये । अग्निकुमार देवों ने चिताओं Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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