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तुम कौन हो ? और क्यों रो रही हो ?' उसने कहा- "मेरा नाम हारावली है और मेरे प्रियतम का नाम हारप्रभ । हम दोनों विमान में बैठ कर जा रहे थे । सरोवर के सौंदर्य को देखकर मैने अपने पति से कहा - "प्रियतम ! हम इसी सरोवर के कदलीगृह में क्रीडा करेंगे । पति ने कहा यहां नहीं, किन्तु नन्दनवन में ही क्रीडा करेंगे । मैने कहा नहीं, यही क्रीडा करेंगे।" बस इतनी सी बात को लेकर मेरा पति मुझ से रुठ गया है और दो घंटे से एकान्त में बैठा है। मैं उसी के वियोग में रो रही हूं।"मै तुम्हारे पति को समझाता हूं 'यह कहकर सागरचंद हारप्रभ के पास पहुंचा और उसे समझाने लगा। हारप्रभ ने कहा-'मित्र ! दो घंट के विरह दुःख से संतप्त मेरी पन्नी को सान्त्वना देने के लिए आप मुझे उपदेश देने के लिए यहां आये हो किन्तु तुम जैसे कठोर हृदयी को मुझे समझाने का कोई अधिकार नहीं है क्योंकि तुम पति के प्रति सम्पूर्ण समर्पण का भाव रखने वाली और सत्य, शील पर आत्मसमर्पण करने वाली मृगांकलेखा जैसी पन्नी को २१ वर्ष से विरहाग्नि की ज्वाला में जला रहे हो । जब मेरी पत्नी दो घंटे के विरह से इतनी दुःखी है तो २१ वर्ष तक तुम्हारे वियोग में जिसने अपना समय व्यतीत किया है उसकी क्या स्थिति होगी उसका भी तुमने विचार किया है ? इन शब्दों का असर सागरचंद पर गहरा पडा उसने उसी क्षण मृगांकलेखा से मिलने का निश्चय किया। उसने हारप्रभ से आकाशगामिनी लेप प्राप्त किया और उसकी सहायता से सागरचंद और धनमित्र मृगांकलेखा के महल में पहुंचे। सागरचंद का मृगांकलेखा से मिलन हुआ। सागरचंद ने मृगांकलेखा से अपने अपराध की क्षमा याचना की । विदाई लेते समय मृगांकलेखा ने अपने पति से कहा - "यदि मैं गर्भवती हुई तो तुम्हारे माता पिता मुझे दुराचारीणी समझ कर घर से निकाल देंगे। " सागरचंद ने कहा - "प्रिये !हमारे गुप्त मिलन के साक्षी मेरा मित्र धनमित्र और तुम्हारी सखी चित्रलेखा है । साथ ही मेरी नाममुद्रावाली अंगूठी तुम्हें देता हूं । इस प्रकार मृगांकलेखा को आश्वस्त कर सागरचन्द्र धनमित्र के साथ आकाश मार्ग से चला और अपने पडाव में पहुंचा । ___इधर मृगांकलेखा गर्भवती हुई । यह बात उसके सास सुसुर तक पहुंची । सास ससुर ने मृगांकलेखा को उसकी किसी भी बात पर विश्वास न कर और उसे व्यभिचारिणी मानकर घर से निकाल दिया। सखी चित्रलेखा के साथ वह अपने पितृगृह पहुंची। वहां भी लोक अपवाद के भय से उसके माता पिताने उसे निकाल दिया । गर्भ का भार वहन करती हुई मृगांकलेखा एक घने वन में पहुंची । बन में भटकते हुए भीलों ने चित्रलेखा का अपहरण किया । मृगांकलेखा सखि के वियोग में आक्रन्द करती हुई असहाय अवस्था में वन में इधर उधर भटकने लगी ।वन में उसे चित्रगुप्त नामका एक सार्थवाह मिला । उसने मृगांकलेखा को आश्रय दिया। चित्रगुप्त सार्थवाह को रास्ते में विजयसेन नाम के राजा ने लूट लिया । मृगांकलेखा अपने शील की रक्षा के लिए वहां से भागी
और एक जीर्ण मन्दिर में जा कर छुप गई । रात्रि का समय था । वहाँ सिंह की भयंकर गर्जना सुनकर वह भयभीत हुई और उसने वही पुत्र को जन्म दिया । अशूचि निवारणार्थ उसने नवजात शिशु को एक वस्त्र में लपेट कर मन्दिर के एक कोने में रख दिया और वह समीप के सरोवर में पहुंची । इतने में एक कुत्ता आया और मांस की गंध से पोटली को मुह में पकडकर घसीटता हुआ उसे दूर ले गया। उधर धनवती नामकी सेठानी ने उस समय एक मृत बालक को जम्म दिया था। उसे बाहर फैकने के लिए दासी उसी जगह पहुंची जहा कुत्ता पोटली खींच रहा था । दासी ने कुत्ते को भगा दिया और पोटली में रखे हुए दिव्य नवजात शिशु को देखा । दासी को बहुत प्रसन्नता हुई । उसने मृत बालक को वही छोड़ दिया और नवजात शिशु को उठाकर सेठानी को दे दिया ।
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