Book Title: Parshvabhyudayam
Author(s): Jinsenacharya, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 9
________________ प्रस्तावना कि जिनसेम वासनाजन्य प्रेम के पक्षपाती नहीं है । वासनाजन्य क्षणभंगुर प्रेम का फल दुःस और क्लेश के अतिरिक्त और कुछ नहीं। कामवासनाओं को जलाए विना आत्मतरव की उपलबिध नहीं हो सकती। बिना तपस्या के आत्मस्नेह परिनिष्ठित नहीं हो सकता पाही पापर्वाभ्युदय का अमर सन्देश है 1 अन्य जैन सन्देश काव्यों में भी प्रायः यह सन्देश दिया गया है। इस प्रकार श्रृंगार के वातावरण में शान्त रस की अवतारणा हुई है। इसी की ओर लश्य कर स्वर्गीय डॉ० नेमिचन्द्रशास्त्री ने कहा था-शृंगार के वातावरण में चलने वाली काव्य परम्परा को अपनी प्रतिभा से शान्त रस की ओर मोड़ देना कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। त्याग में विश्वास रखने वाले जैन मुनियों ने श्रमण संस्कृति के उच्च तत्त्वों का विश्लेषण पाश्र्वनाथ और नेमिनाथ जैसे महापुरुषों के जीवन चरितों में अंकित किया है। जन सन्देश कायों में साहित्यिक सौन्दर्य के साथ पार्शनिक सिद्धान्त भी उपलम्य होते हैं। विषय के अनुसार मन और शील को दूत नियुक्त करना पौर शीतलता तथा शान्ति का वातावरण उत्पन्न कर देना सर्वथा नवीन प्रयोग है। संयम, सदाचार एवं परमार्थतत्व का निरूपण काय की भाषा और शैली में ये काव्य सहृदयजन के आस्वाथ बन गए हैं। धाप पाश्र्वाभ्युदय में नियम के किसी सिद्धान्त का पिर्शपरूप से प्रतिपादन नहीं किया गया है तथापि मेषदूत के अनेक प्रसङ्गों को आमाय जिनसेन ने जनमत के अनुकूल हालने का प्रयास किया है । उदाहरणतः मेघदूत में उज्जयिमी के महाकाल मन्दिर का वर्णन है तथा उसके अन्दर पशुपति शिव का अधिष्ठान बतलाया है। पाश्र्वाभ्युदय में महाकाल बन में कलकल नामक जिनालयका वर्णन किया गया है । पशुपति शब्द का अर्थ यहाँ पशु आदि प्राणियों के रक्षक भगवान जिनेन्द्र अर्थ व्यजित होता है। जैन ग्रन्थों में हिमबन आदि पर्वतों से गला आदि मदियों का निर्गम बतलाया गया है। पापर्वाभ्युदय में भारतवर्ष की गङ्गा आदि नदियों को उन नदियों की प्रतिनिधि कहा गया है । प्रतिनिधि होने के कारण उनमें स्नान करने में कोई दोष नहीं है, क्योंकि तीर्थ के प्रतिनिषि भी पापों को नष्ट करने वाले कहे जाते हैं। मेघदूत में गङ्गा को जह्न, कन्या तथा सगर पुत्रों को जाने के लिए स्वर्ग की सीढ़ियों के रूप में चित्रित किया गया है । जैन परम्परा इन पौराणिक कहानियों का समर्थन नहीं करती है अतः १८. १० मिचन्द्र शास्त्री, संस्कृत काव्य के विकास मे जैन कवियों का योगदान, पृ० ४७१-४७२ १९. पाम्युिधय २८ २०. पायाभ्युदय २०१५

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