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प्रस्तावना
स्त्री अथवा ईशान दिशा के स्वामी की पत्नी के अर्थ में मेघदूत में मेघ से कहा गया है कि वह शिवजी के हाथ
चलने वाली पार्वती के पैदल चलने पर
अपने भीतर जल
कर द
कारण पूजा करने की इच्छुक जैन शरीर को सीढ़ी के रूप में परिवर्तित
भ्युदय में मह गौरी यजित हुआ है । का सहारा देने पर प्रवाह को रोककर अपने शरीर की सीढ़ियों के रूप में म्युदय में गौरी के स्थान पर देव भक्ति के मन्दिर को आतो हुई इन्द्राणी के लिए अपने करने की मेघ से प्रार्थना की गई है । २७
जिनसेन का जिन भक्ति में अटूट विश्वास है । नागराज धरणेन्द्र तीर्थंकर पानाथ की स्तुति करते हुए कहते हैं - हे भगवन् ! आपके विषय में थोड़ी भो भक्ति विपुल पुण्यको उत्पन्न करती है | २८ पूर्वजन्म में कमठ के जीवधारी तापस के द्वारा जलाए जाने पर हम दोनों नाग और नागिनी देवयोनि को प्राप्त हुए है इस प्रकार थोड़ी भी भक्ति अधिक फल को देती है । हम लोगों का और भी अधिक कल्याण हो ऐसी जिसकी भक्ति के प्रभाव से मुझे पत्नी के साथ यह कठिनाई से प्राप्त करने योग्य ( दुर्लभ ) नागेन्द्र पद प्राप्त हुआ और जिसके माहात्म्य से भक्ति के अनुकूल आचरण करने के लिए मैं बिहार छोड़कर रत्नत्रय धारी भगवान् ऋषभदेव के मन्दिर के शिखर से युक्त उस कैलाश पर्वत से लौटा हूँ | वह (घरणेन्द्र के पद को प्रदान करने वाली ) भक्ति, आनको सेवा करती हुई मेरे कल्याण के लिए हो । हे देव ! उतम सम्पदा को देती हुई यह आपके चरणों की भक्ति इस जन्म में और परलोक में भी मेरे लिए सब प्रकार से सुखदायी हो। इसी प्रकार पश्चातास्युक्त हृदय वाला शम्बरासुर भगवान् के प्रति अपने हार्दिक उद्गार व्यक्त करता है - हे भगवन् ! राशीभूल अथवा विनश्वर मेघ शब्द नहीं करके भी जैसे घातकों को जल देता है, उसी प्रकार प्रार्थना किए जाने पर मौन को धारण किए हुए भी आप हम लोगों को अभीष्ट
२६. मेघदूत १६०, पाव २७५
२७. मेघदूत ११६०, पावमुदय २२७६
२८. श्रेयस्ते भवति भगवन्भक्तिररुपाप्यनत्वम् ।। पाश्व० ४०५४
२९. सेवा सेवां त्ववि विद्यतः यसे में दुरापं,
यन्माहात्म्यात्वमधिगतं कान्तमामा ममेवम् । सवनुचरणेनाऽहमुज्झन्विहार,
यस्माच्चैन
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तस्मादद्र स्त्रिनयनवृषोत्खातकुटान्निवृत्तः ॥ पाव ४२५५ १०. तम्मे देव श्रियमुपरिमां तन्वतीयं स्वपोभक्तिभूयाग्निखिलमुखया जन्मनोहाऽप्यमुत्र । पा० ४५६