Book Title: Panchsangraha Tika Part_1
Author(s): Chandrashi Mahattar, Malaygiri
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

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Page 10
________________ पंचसं० टीका ॥८॥ विवशादयिते निर्वर्त्यते इति आहारकं 'कुहुलमिति वचनात्कर्मणि छुञ् ' यथा पा. दप्रहारक इत्यंत. नक्तं च- कऊंमि समुप्पन्ने ( सुयकेवलिया विसिठ्ठलदीए ॥ जं पच प्राहरिज | जति श्राहारगं तं तु ॥ १ ॥ कार्य चैदं - पालिंदियज्ञदिदंसण- सुहुम यचावग हणदेनं वा || संसयवोठेयवं । गमणं जिणपायमूलंमि ||२|| तच्च वैक्रिय शरीरापेक्षयाऽत्यंतशु, स्वच्छ स्फटिक शिलेव शुत्रपुल समूहघटनात्मक; आदारकं मिश्रमाहारकस्य प्रारंभका ले परित्यागकाले वा केचित, तथा नदारे प्रधानं, प्राधान्यं चास्य तीर्थकर गणधरशरीरापेक्षया, ततोऽन्यस्यानुत्तरसुरारीरस्याप्यनंतगुणहीनत्वात्. यहा नदारं सातिरेकयोजन सहस्रमानत्वात्, पारीरापेकया बृहत्प्रमाणं. बृहना चास्य वैक्रियंप्रति जवधारणीयंसदजशरीरापेक्षया इष्टव्या. Jain Education International अन्यथा' उत्तरवै क्रियं ' योजनलक्षमानमपि लभ्यते नदारमेवौदारिकं. ' विनयादिपाठादि' औदारिकमिश्रं नरतिरश्वामपर्याप्तावस्थायां केवलिसमुद्रातावस्थायां वा तथा स्मयगंति कर्मजक, कर्मणो जातं कर्मजकं कर्मात्मकमित्यर्थः, तदेव कर्मजक ' जाती , " क For Private & Personal Use Only नाग : ॥ ६ ॥ www.jainelibrary.org

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