Book Title: Panchastikay Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 10
________________ विद्यमान रहती है। यदि प्रश्न किया जाए कि द्रव्य और गुणों को पृथक मानने में क्या आपत्ति है? इसके उत्तर में कहा गया है कि यदि द्रव्य गुण से पृथक होता है तो अनंत द्रव्य घटित होंगे अथवा यदि गुण द्रव्य से पृथक होते हैं तो द्रव्य ही अभाव को हासिल/प्राप्त करते हैं (करेंगे)। चूँकि गुण आश्रयरहित नहीं रहते हैं, अतः पृथक अनन्त गुणों के लिए आश्रयरूप अनन्त द्रव्यों की कल्पना करनी होगी जो अर्थहीन होगी अथवा चूँकि द्रव्य गुणों का समूह होता है, अतः गुण की पृथक कल्पना करने से द्रव्य का ही अभाव हो जायेगा। अतः कहा गया है कि द्रव्य और गुण का संबंध प्रदेश-भेद-रहित है और अपृथक्करणीय है। इस तरह उनके संबंध में अनादि वैधता प्रतिपादित है। पाँच अस्तिकायिक (बहुप्रदेशी) द्रव्यः जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश बहुप्रदेशी हैं तथा सत्ता से अपृथक हैं, गुण-पर्याय सहित हैं, परिणमन-लक्षण से युक्त हैं। काल एक प्रदेशी है, इसलिए अस्तिकाय में सम्मिलित नहीं है। जीवः जीव चेतन व ज्ञान-दर्शन उपयोगमयी है, प्रभु (अपने उत्थान के लिए स्वयं समर्थ) है, कर्ता, भोक्ता और स्वदेह परिमाणवाला होते हुए भी अमूर्त है और वह कर्मों से संयुक्त है। जो जीव कर्मरूपी मैल से छुटकारा पाया हुआ है वह स्वयं सर्वज्ञ हुआ है, सबको जानने-देखनेवाला होकर आत्मोत्पन्न, अखंडित, अतीन्द्रिय/अमूर्त अनन्त सुख को प्राप्त करता है। इस तरह जीव कर्मों का नाश करके सिद्ध होता है और आचार्य कहते हैं कि यह एक अपूर्व घटना है। चार प्राणों (आयु, बल, इन्द्रिय और श्वासोच्छवास) से जीता हुआ संसारी पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार

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