________________ इतिहासकारं दिवङ्गत काशीप्रसाद जायसवाल ने अपने हिन्दूराज्यतन्त्र में लिखा है, ..."इसी प्रकार ईसवी दसवीं शताब्दी के सोमदेव का रचा हुआ नीतिवाक्यामृत भी सूत्रों में ही है। इसमें प्राचीन आचार्यों की अनेक उत्तम बातों का संग्रह है। ये सूत्र साधारणतः उद्धरण मात्र हैं, जिन्हें इस जैन ग्रन्थकार ने "राजनीतिक सिद्धान्तों का अमृत' बतलाया है; और उनका यह कथन बहुत कुछ ठीक भी है"। इस उद्धरण से दो ऐतिहासिक तथ्य अवगत होते हैं। प्रथम यह कि सोमदेव दसवीं शताब्दी के प्राचीन लेखक हैं और दूसरा यह कि इन्होंने पूर्ववर्ती नीतिशास्त्र के आचार्यों के ग्रन्थों का भली भांति अध्ययन और मनन करने के अनन्तर 'नीतिवाक्यामृतम्' की रचना की। इस प्रकार तुलसीदास की रामायण में हम को जो नानापुराण-निगमागम-सम्मत सामग्री मिलती है, नीतिशास्त्र के विषय में वैसी ही सामग्री हम को सोमदेव के 'नीतिवाक्यामृतम्' में सहजरूप से सुलभ होती है। इन्होंने स्वरचित यशस्तिलकधम्पू के तृतीय आश्वास में लिखा है, "मम गुरु-शुक्र-विशालाक्ष-परीक्षित्-पराशर-भीम-भीष्म-भारद्वाजादि-प्रणीत-नीतिशास्त्र-श्रवणसनाथं श्रुतिपथमभजन्त / " इसमें परिगणित आठ आचार्यों के साथ आदि पद का प्रयोग अनेक अन्य नीतिशास्त्राचार्यों की ओर स्पष्ट संकेत करता है। इस व्यापक अध्ययन के अनन्तर नीतिवाक्यामृतम् की रचना से स्वयं ही उसका महत्त्व अधिक हो जाता है। नीतिवाक्यामृतम् की एक संस्कृत टीका से अवगत होता है कि कान्यकुब्जेश्वर महाराज श्री महेन्द्रदेव ने अन्यान्य नीतिशास्त्रों को दुर्बोध देखकर श्री सोमदेव को सरल नीतिशास्त्र की रचना के लिये प्रेरणा प्रदान की और तदनुसार इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ की रचना हुई। . सोमदेवसूरि वाद-विवाद में निपुण और अनेक विषयों के महापण्डित थे। यशस्तिलक चम्पू का गद्य-पद्य इनके प्रौढ पाण्डित्य का परिचायक है। द्वितीय आश्वास में वर्णित एक प्रसंग से इनके ज्योतिषशास्त्र के पांडित्य का ज्ञान होता है / इनके ज्येष्ठ भ्राता भी उत्तम कोटि के विद्वान थे और इनके गुरु थे श्रीनेमिदेव जिनकी चरणाराधना बड़े-बड़े तार्किकशिरोमणि किया करते थे। तत्कालीन व्यवस्था के अनुसार इनको सभा-समितियों और विद्वन्मण्डल तथा राज-मण्डल से स्याद्वादाचल सिंह, ताकिक-चक्रवर्ती, वादीभपञ्चानन, वाक्कल्लोल 1. हिन्दू पालि टीका रामचन्द्रवर्मा कृत अनुवाद प्रथम खण्ड।