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प्रथम उद्देशक - अंगादान-विषयक दुष्कर्म : प्रायश्चित्त
मक्खेज्ज - म्रक्षण - विशेष रूप से संमर्दन करे, भिलिंगेज्ज - संमर्दन करे, कक्केण - कल्क - अनेक सुगन्धित द्रव्यों द्वारा निर्मित उद्वर्तन -विशेष द्वारा, लोरेण - लोध्र नामक सुगन्धित पदार्थ-विशेष द्वारा, पउमचुण्णेण - पद्मचूर्ण द्वारा, पहाणेण - स्नपन द्वारा, सिणाणेण - विशेष स्नपन द्वारा, चुण्णेहिं - जौ, चन्दन आदि के चूरे से, वण्णेहिं - अबीर - गुलाल आदि के बुरादे से, उव्वदृइ - उद्वर्तन - उबटन करे, परिवठूइ - परिवर्तित करे - बार-बार करे, सीओदगवियडेण - अचित्त शीतल जल द्वारा, उसिणोदगवियडेण - अचित्त गर्म जल द्वारा, उच्छोलेज्ज - उत्क्षालित करे - सामान्य रूप से क्षालित करे या धोए, पधोवेज्ज - प्रक्षालित - विशेष रूप से धोए, णिच्छल्लेइ - जननेन्द्रिय के अग्रभाग की त्वचा को ऊपर की ओर करता है, जिग्घइ - सूंघता है।
भावार्थ - २. जो साधु अंगादान को काष्ठ, बांस आदि की सलाई, अंगुली तथा लोह आदि की सलाई से संचालित करता है या संचालित करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है। . ३. जो साधु अंगादान का संवाहन या परिमर्दन करता है अथवा संवाहन या परिमर्दन
करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है। . ४. जो साधु अंगादान का तेल, घी, चिकने पदार्थ या मक्खन द्वारा अभ्यंगन, म्रक्षण या संमर्दन करे अथवा अभ्यंगन, म्रक्षण या संमर्दन करते हुए का अनुमोदन करे, उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है। .
५. जो साधु अंगादान का कल्क, लोध्र, पद्मचूर्ण, स्नपन या स्नान - विशेष स्नपन करे, जौ, चन्दन आदि के चूरे से, अबीर आदि के बुरादे से उद्वर्तन - उबटन करे या परिवर्तित करे - बार-बार वैसा करे अथवा उद्वर्तित या परिवर्तित करते हुए का अनुमोदन करें, उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
६. जो साधु अंगादान का अचित्त शीतल जल से या अचित्त उष्ण जल से उत्क्षालित करे या प्रक्षालित करे अथवा उत्क्षालित प्रक्षालित करते हुए का अनुमोदन करे, उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है। ... ७. जो साधु अंगादान के अग्रभाग की त्वचा को ऊपर की ओर करता है - उलटता है या वैसा करते हुए का अनुमोदनं करता है, उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
८. जो साधु अंगादान को सूंघता है या सूंघते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
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