Book Title: Nishesh Siddhant Vichar Paryay
Author(s): Labhsagar Gani
Publisher: Jainanand Pustakalay

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Page 26
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gynam Mandir रायपसेणइयविचारा: 'विदिण्णे य गुरुजणेणं उवविढे संपर्माजऊण ससीसं काय तहा कायलं' इति सूत्रं । वृत्तिस्तु-उपविष्ट उचितासने, सम्प्रमृज्य मुखवस्त्रिका-रजाहरणाभ्यां सशीई हाय-समस्तकं शरीरं तथा करतलं-हस्ततलं च इति । भोजनसमये साधुना मुखवस्त्रिका प्रत्युपेक्षणीया । वजेयत्वो य सम्वकालं अचियत्तघरपवेसो अचियत्तभत्तपाणं अचियत्तपीढफगजासंधारगवत्थपत्तकंबलदंडगरउहरणनिसेजचीलपट्टगमुहपोत्तियपायपुंछणाई भायणभंडोवहिउवगरणं । वृत्तियथा-अचियत्तपीठफलकशय्यासंस्तारकवस्त्रपत्रिकंबलदण्डकरजोहरणनिषद्याचोलपट्टकमुखपोतिकापादप्राञ्छनादि प्रतीतमेव । किमेवंविधभेदमित्याह-भाजन - पात्र माण्ड वा तदेव मृन्मयम् उपधिश्व-वस्त्रादि: पत एवापकरणमिति समासः । तद्वर्जयितव्यम् इति प्रक्रम: । इति मुखत्रिकाक्षराणि प्रश्नव्याकरणे । ' जिणपडिमाओ सुरभिणा गंधोदएण पहाणेइ हाणित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिंपइ अणुलिंपइता० जिणपडिमाणं अहयाई देवदृसजुगलाई नियंसेइ नियंसेइत्ता पुष्फारुहणं मल्लारुहण चुण्णारुहण गंधारहण वत्थारुहण आभरणारुहण करेइ इति । रायपसेणइए (सू० ४४) । जिणपडिमाण पुरओ अच्छेहि सण्हेइ सेएहि रययमपहि तंदुलेहिं अष्टमंगले आलिहइ इति । रायपसेणइयस्स । 'जहण्णेण सत्तरयणीए' त्ति सप्तहस्ते उच्चत्वे सिद्ध्यन्ति महावीरवत् । 'उकासेण पंचधणुस्सये' ति ऋषभस्वामिवत् । एतच्च यमपि तीर्थकरापेक्षयोक्तम् । अतो द्विहस्तप्रमाणेन कूर्मापुत्रेण न व्यभिचारो, न वा मरुदेव्या सातिरेकपश्चधनुःशतप्रमाणया इति । औपपातिके (सू० ४३) । ननु नाभिकुलकरः पञ्चविंशत्यधिकपश्चधनुःशतमान: प्रतीत एव । तद्भार्यापि मरुदेवी तत्प्रमाणैव 'उच्चत्तं चेव कुलगरेहि सममिति वचनात् । अतस्तदवगाहना For Private And Personal Use Only

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