Book Title: Nirvikalp Atmanubhuti ke Purv
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 9
________________ निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व हुई दृष्टिपूर्वक जिनवाणी के अध्ययन से यह मार्ग प्राप्त हुआ तथा मार्ग समझने में आई उलझनों को सुलझाने की कृपा स्व. पूज्य बहन श्री चम्पाबहन से प्राप्त हुई। अतः उन दोनों महापुरुषों का उपकार तो यह आत्मा कभी भूल नहीं सकता। अन्तरंग (आत्मलक्ष्यी) पुरुषार्थ तो हर एक आत्मा की रुचि परिणति की उग्रता पर निर्भर है। 16 बहुत वर्षों पूर्व “पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावक और उसकी ११ प्रतिमा" नाम की पुस्तिका एवं "णमोलोए सव्व साहूणं" नाम की पुस्तिका मैंने लिखी थी। उन पुस्तिकाओं को आद्योपान्त पढ़कर आवश्यक परिवर्तन करने हेतु श्री बड़ील भाई श्री पण्डितरत्न हिंमतलाल जेठालाल शाह सोनगढ़ ने मार्गदर्शन दिया। अतः उनका मैं आभारी हूँ एवं उपकार मानता हूँ। संशोधित होकर वे पुस्तिकाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। उसी समय से मेरी भावना थी कि चतुर्थ गुणस्थान प्रगट करने योग्य अन्तरंग एवं बहिरंग परिणमन को बताने वाला भी कोई साहित्य होना चाहिए, तदनुसार "सुखी होने का उपाय" नाम की पुस्तक माला प्रारम्भ की, जिसके सात भाग प्रकाशित हो चुके हैं, आठवाँ भाग प्रेस है । उसी पुस्तक माला का संक्षिप्तसार प्रस्तुत पुस्तक है। मेरा विश्वास है कि निःश्रेयस का मार्ग एकमात्र यही है और यही मार्ग अनन्त तीर्थंकरों ने बताया है। अतः आत्मार्थी बन्धु पूर्ण श्रद्धा के साथ मार्ग अपना कर अपना जीवन सफल करें। - यही भावना है। - नमीचन्द पाटनी निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व आत्मदर्शन की विधि आगम से समझना आचार्य अमृतचन्द्रदेव ने पंचास्तिकाय की गाथा १४६ में एक प्राचीन गाथा प्रस्तुत की है, वह निम्नप्रकार है - “अंतो णत्थि सुईणं कालो थोओ वयं च दुम्मेहा । तण्णवरि सिक्खियव्वं जं जरमरणं खयं कुणई ॥ 17 अर्थ - श्रुतियों का अंत नहीं है (शास्त्रों का पार नहीं है) काल अल्प है और हम दुर्मेध मंदबुद्धि वाले हैं, इसलिये मात्र वही सीखने योग्य है कि जो जरा-मरण का क्षय करे। " पण्डित भूधरदासजी ने भी जैन शतक में कहा हैजीवन अलप, आयु-बुद्धि-बल-हीन, तामें, आगम अगाध सिंधु कैसे ताहि डाकि है ? ( अर्थात् कैसे पूरा करेंगे ?) द्वादशांग मूल एक अनुभव अपूर्व कला, भवदाघहारी घनसार की सलाक है । यही एक सीख लीजे, याही को अभ्यास कीजे, याको रस पीजे, ऐसो वीर जिनवाक् है । इतनों ही सार यही आतम को हितकार, यही लों मदार और आगे दूकढ़ाक (जंगल) है ॥ गाथा के " जरा-मरण के नाश का उपाय" ही उपरोक्त पद्य में " द्वादशांग मूल एक अनुभव अपूर्वकला" है और वह "अनुभव

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