Book Title: Nirvikalp Atmanubhuti ke Purv
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 65
________________ 128 निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व अंशी का अंश होने से सभी एक द्रव्य के अंश हैं। इसलिये पर्याय जब व्यय को प्राप्त होती है तब विकार तो स्वभाव का अंश नहीं होने से उसका तो अभाव हो ही जाता है; लेकिन जिस-जिस गुण की जितनी शुद्धता पर्याय में प्रगट हो जाती है, उसका तादात्म्य तो द्रव्य के साथ होता है इसलिये पर्याय के व्यय के साथ शुद्धि का व्यय नहीं होता। ध्रुव तो शुद्धता का भंडार है लेकिन उसका वेदन (अनुभव) नहीं आता; पर्याय में जो शुद्धता प्रगट ही जाती है, उसका द्रव्य के साथ तादात्म्य होता है और पर्याय द्रव्य का अंश होने से अनुभव (वेदन) भी व्यक्त (प्रगट) रहता है। जैसे सम्यक्त्व की उत्पत्ति काल में निर्विकल्पदशा के साथ आत्मानुभव होकर मिथ्यात्व एवं अनन्तानुबंधी का अभाव होने से पर्याय में आंशिक शुद्धि प्रगट हो गयी, निर्विकल्पता समाप्त होते ही उस समय के अतीन्द्रिय आनन्द का वेदन तो नहीं रहता। श्रद्धा का कार्य स्व में अपनापन, ज्ञान का विषय स्व को ही स्व जानना तथा अनंतानुबंधी का अभावात्मकचारित्र. इसप्रकार स्व में आंशिकलीनता स्थिरता के साथ में निरन्तर वेदन वर्तता रहता है। साथ ही वीतरागता रूपी शांति पर में अपनेपन के आकर्षण का अभाव तथा अनाकुलता रूप सुख इत्यादि अनन्त गुणों का आंशिक वेदन तो विकल्पात्मक भूमिका में भी निरंतर वर्तता रहता है। ऐसा वेदन भी उसी पर्याय में वर्तता है, जिसमें विकार भी होता है। लेकिन पर्याय व्यय होने के साथ विकार का तो व्यय हो जाता है और आगामी पर्याय में जीव जितना और जिस जाति का विकार करे तदनुसार नये प्रकार का फिर उत्पादन कर लेता है। लेकिन पर्याय में जो शुद्धता प्रगट हुई है, उसका पर्याय के साथ व्यय होकर भी आगामी पर्यायों में पुन: उत्पाद हो जाता है। जब तक जीव सम्यग्दर्शन बनाये रखेगा, तब तक विकार हो जाने पर निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व 129 भी उसका नाश नहीं होता, अपितु आगामी पर्यायों में शुद्धि का उत्पाद तो होता ही रहता है। अगर उग्र पुरुषार्थ द्वारा स्वरूपस्थिरता रूपचारित्र में वृद्धि हुई तो आगामी पर्याय विशेषशुद्धि के साथ प्रगट होगी। जितने अंश में चारित्र की निर्बलता होती है, उतने प्रमाण में विकार का भी उत्पादन होता रहता है। आगम में इसी को कर्मधारा के साथ-साथ ज्ञानधारा का भी ज्ञानी को वर्तते रहना कहा है। हर एक उत्पाद में ऐसी मिश्रदशा ज्ञानी को वेदन में निरंतर वर्तती रहती है। उपरोक्त प्रकार से स्पष्ट हो जाता है कि पर्याय में विकार का व्यय होकर फिर नवीन विकार जीव उत्पन्न करता है तो होता है, लेकिन शुद्धता जो पर्याय में प्रगट हो जाती है, उसका द्रव्य के साथ तादात्म्य हो जाने से पर्याय के साथ अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता। इससे आगम का यह सिद्धान्त भी सिद्ध होता है। कि पूर्व पर्याययुक्त द्रव्य" उत्तर पर्याययुक्त द्रव्य का कारण होता है। सम्यक पुरुषार्थ की तारतम्यता कैसे चलेगी? प्रश्न - सम्यग्दर्शन प्रगट होने के पूर्व अज्ञानी द्वारा किये गये सम्यक् पुरुषार्थ की तारतम्यता की श्रृंखला कैसे चलेगी? उत्तर - तारतम्यता तो निश्चित रूप से होती है। जिनवाणी में विधान है कि पाँच लब्धियों पूर्वक ही सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। मोक्षमार्ग प्रकाशक में भी सम्यक्त्वसन्मुखजीव को, पाँच लब्धियों पूर्वक ही सम्यक्त्व की प्राप्ति बताई है। इससे स्पष्ट है कि सम्यक्त्व की उत्पत्ति तारताम्यतापूर्वक ही होती है। यह भी स्पष्ट है कि श्रद्धा सम्यक् हुए बिना शुद्धि के उत्पादन का प्रारंभ भी नहीं होता। श्रद्धा गुण का सम्यक्पना उसकी शुद्धि से ही प्रगट हो सकेगा, न तो ज्ञान के क्षयोपशम के निर्णय मात्र से और INSTRATIRALLPAR ADARA

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