Book Title: Nirvikalp Atmanubhuti ke Purv
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 76
________________ 150 निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व अवसर खो देते हैं। तात्पर्य यह है कि आत्मार्थी ने 'पूर्णता के लक्ष्य से शुरुआत' की है। अतः लक्ष्य को प्राप्त करने में अत्यन्त जाग्रत रहना चाहिये बीच में आने वाले आकर्षण में फंसकर लक्ष्य भ्रष्ट नही हो जाना चाहिये। निर्विकल्प दशा भी तो क्षणिक-अनित्य पर्याय है। आत्मार्थी का लक्ष्य तो ज्ञायक ध्रुवतत्त्व है; उसमें एकाग्र होने के बीच में सविकल्प - पर्याय हो अथवा निर्विकल्प पर्याय हो दोनों ही मेरे लक्ष्य नहीं हैं। ऐसी अकाट्य रुचि के साथ जो पुरुषार्थ कार्य करता है, उसको निर्विकल्पता की रुचि नहीं होती। ऐसे ही आत्मार्थी को निर्विकल्पता दशा आती है। निर्विकल्पदशा की रुचि रखने वाले को निर्विकल्प आत्मानुभूति नहीं होती; कारण ऐसी रुचि तो पर्यायदृष्टि है, पर्यायदृष्टि जीव को निर्विकल्पता नहीं आती। इसलिये रुचि का विषय तो मात्र ज्ञायक परमात्मा है, वही मैं हूँ। यह सुरक्षित बना रहे, इसकी पूर्ण सावधानी रखनी चाहिये । सत्यार्थ रुचि की पहिचान क्या ? सत्यार्थ रुचि उत्पन्न होने के साथ-साथ मिथ्यात्व एवं अनंतानुबंध के निषेक क्षीण होते जाते हैं। श्रद्धा में तो सिद्ध स्वभावी ज्ञायक परमात्मा मैं स्वयं हूँ वीतरागी होने से अनाकुल आनन्द स्वभावी एवं सर्वज्ञ स्वभावी भी मैं स्वयं हूँ। ऐसा स्वाभिमान वर्तने लगता है। श्रीमद्राजचन्द्रजी ने भी कहा है कि ज्ञानी की श्रद्धा ऐसी वर्तने लगती है कि - "श्रद्धा अपेक्षा मुझे केवलज्ञान हुआ है, विचार दशा में केवलज्ञान वर्त रहा है एवं मुख्य नय (निश्चय नय) की अपेक्षा मैं केवलज्ञान स्वरूपी हूँ...।" अतः न तो सुख के लिये कुछ प्राप्त करने की रुचि रहती है और निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व ना ही पर को जानने का उत्साह रहता है। ऐसा सहजरूप से होता है। लेकिन चारित्रमोह की निर्बलता में वर्तने वाले भाव एवं क्रियाएँ भी हो जाती हैं फिर भी उनमें सुखबुद्धिपूर्वक होनेवाली गृद्धता टूट जाती है । रुचि ज्ञायक स्वभाव की वर्तने से लक्ष्य भ्रष्ट नहीं होता । 151 परज्ञेयों के परिणमन ज्ञान में आना तो अवश्यम्भावी है एवं चारित्रमोह का मंद उदय वर्तने पर भी उन ज्ञेयों में आकर्षित होकर फंस भी जाता है, करने धरने परिवर्तन करने संबंधी भाव भी होते हैं, लेकिन ज्ञायक स्वभाव की श्रद्धा (रुचि) होने से तथा ज्ञेयों में परपना और उनकी योग्यतानुसार परिणमन का विश्वास होने से, परिणति की शुद्धता आत्मार्थी को ऐसा नहीं फंसने देती कि लक्ष्य भ्रष्ट हो जाए। उपरोक्त वर्तने वाले सहज परिणमन के साथ वर्तते हुए विकल्पों की जाति में भी बिना प्रयास करे परिवर्तन आ जाता है। पूर्व दशा में तो कर्तृत्वबुद्धिपूर्वक के विकल्प उठते थे, अब सहज रूप से कर्तृत्व बुद्धिपूर्वक के विकल्पों की बाहुल्यता हो जाती है। संक्षेप में कहा जाए तो ज्ञाता दृष्टा स्वभावी ध्रुव तत्त्व में अहंबुद्धिपूर्वक, परज्ञेयों में परत्व बुद्धिपूर्वक की श्रद्धा के कारण कर्तृत्वबुद्धि के आकर्षण घटने लगते हैं एवं अनंत सुखस्वभावी ज्ञायक तत्त्व के प्रति सहजरूप से आकर्षण वर्तने लगता है। संक्षेप से यह सत्यार्थ रुचि की पहिचान है। इसप्रकार आत्मार्थी अपनी रुचि एवं परिणति की सत्यार्थता को सहज वर्तने वाले परिणमनों से अवश्य पहिचान सकता है; लेकिन अन्य आत्मार्थी की रुचि की वास्तविकता को दूसरा व्यक्ति नहीं पहिचान सकता। वास्तव में धर्म तो अपने कल्याण के लिये किया जाता है। दूसरे के दोष देखने के लिये नहीं। इसलिये आत्मार्थी को परलक्ष्य छोड़ अपने प्रयोजन में सावधान रहना चाहिये ।

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