Book Title: Nirvikalp Atmanubhuti ke Purv
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 55
________________ निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व तो इस मनुष्य पर्याय के छूटने पर भी आत्मा का साथ नहीं छोड़ते, इसलिये इनको जिनवाणी में सद्भूत अथवा असद्भूत उपचार नय के विषय बताकर उनसे एकत्व तोड़ने के कथन किये गये हैं । 108 समयसार ग्रन्थाधिराज में मुख्यता से इन उपायों का ही विस्तार से विवेचन है। आत्मा की किस प्रकार की भूल से आत्मा में विकारी भावों की उत्पत्ति होती है, उन सबका विवेचन भी उसमें किया गया है। उनमें आत्मा की प्रबलतम भूल तो एक ही है कि अपने स्वरूप की अजानकारी पूर्वक जो अपने नहीं हैं और न कभी भी अपने हो सकते हैं, उनको अपना मानना इसी का नाम मिथ्यात्व अर्थात् मिथ्या मान्यता है। आत्मा के अहित करने वाले कारणों की मूल अर्थात् जड़ यह ही है। अतः ऐसी मान्यता को नाश करने का उपाय समयसार ग्रन्थाधिराज का मूल विषय है। इसी में गुण भेदों अथवा निर्मल पर्यायों के भेदों के कारण उत्पन्न होने वाले विकल्पों अर्थात् सद्भूत अनुपचार नय के विषयों का भी अभाव करने के उपायों का वर्णन है। आत्मार्थी को ग्रन्थराज के साथ उस पर हुवे आध्यात्मिक पूज्य श्री कानजीस्वामी के प्रवचनों का भी पूर्ण मनोयोग द्वारा अध्ययन कर यथार्थ मार्ग ग्रहण करना चाहिये । साथ में यह भी ध्यान रखने योग्य है कि कोई अज्ञानी स्थूल मिथ्यात्व के विषयों का अभाव करे बिना ही सीधे उपरोक्त सद्भूत उपचार- अनुपचार नय के विषयों अर्थात् रागादि से एकत्व तोड़ने का प्रयास करेगा तो वह जीव तो अपने मिथ्यात्व को और भी दृढ़ करेगा। कारण उसने अपने ध्रुव की दृष्टि करने का प्रयास तो छोड़ दिया । और ज्ञान को परलक्ष्यी रखकर, शरीर, आदि में एकत्व बुद्धि रखते हुए, अपनी कल्पना में आत्मा को शुद्ध मानकर अनेक विकल्प करते हुए तथा ध्यान मुद्रा लगाकर आत्मा को प्राप्त करने का प्रयास करेगा, वह कैसे निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व सफल हो सकेगा । अतः समस्त मिथ्याकल्पनाओं को छोड़कर, त्रिकाली ज्ञायक रूप अपना अस्तित्व मानकर, ध्रुव के अतिरिक्त अन्य सभी आकर्षणों को समाप्त करते हुए, ध्रुव को ही शरणभूत मान उसी की दृष्टिपूर्वक, उस ही की शरण में जाना चाहिये। यह ही एक सारभूत है। भण्डार में अशुद्धता नहीं होने पर भी पर्याय अशुद्ध क्यों ? 109 प्रश्न- विश्व के पाँचों द्रव्यों की पर्यायें उनके ध्रुव के समान ही उत्पन्न होती हैं, तो जीव की पर्यायें ध्रुव के जैसी ही उत्पन्न क्यों नहीं होती ? उत्तर - आत्मद्रव्य की भी स्वभाविक स्थिति तो सब द्रव्यों के समान ही है, लेकिन अन्य द्रव्य तो अचेतन - अज्ञायक हैं और आत्मद्रव्य तो चेतन - ज्ञायक भी है, अतः वह स्व के साथ पर को भी जानता है। ज्ञान के अतिरिक्त आत्मा में श्रद्धा एवं चारित्र आदि गुण भी हैं, इन दोनों गुणों में ऐसी सामर्थ्य है कि ये विपरीत भी परिणमन कर सकते हैं। तथा आत्मा चेतन होने से निराकुलता रूपी सुख अथवा आकुलता रूपी दुख का वेदन भी कर सकता है और अपने विपरीत परिणमन का फल भी भोगता है। अन्य द्रव्य अचेतन होने से उनको यह सब नहीं होता। उपरोक्त श्रद्धा एवं चारित्र आदि के स्वभाविक परिणमन के फलस्वरूप अनन्त सुख का वेदन (अनुभव) करने वाले सिद्ध भगवान हैं। उनकी पर्याय ध्रुव के समान ही निरन्तर परिणमती रहती है। ज्ञान का तो स्व-परप्रकाशक स्वभाव है। श्रद्धा का स्वाभाविक परिणमन तो, स्व को ही स्व मानना है तथा चारित्र का भी स्वाभाविक परिणमन

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