Book Title: Nirvikalp Atmanubhuti ke Purv
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 45
________________ 88 निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व सम्यक्त्व उत्पन्न कर लेता है। आत्मा को पुर्नस्थापन करने में सावधानीपूर्वक संलग्न रहता है। लेकिन कोई अल्प संसारी उपशम सम्यक्त्व प्राप्त होने के साथ निर्विकल्प आत्मानुभूति प्राप्त हो जाने मात्र से, ऐसा मान लेता है कि अब मुझे सम्यग्दर्शन तो प्राप्त हो चुका; अब तो मुझे व्यवहारचारित्र को संभालना चाहिये। ऐसा मानकर, स्वस्वरूप में अपनत्व एवं ज्ञेयमात्र में परत्व (परपना) बनाये रखने की सावधानी छोड़ देता है। और निश्चय शुद्धि के साथ सहजरूप से वर्तनेवाले भावों की सहजता की उपेक्षा करते हुए, कर्तृत्वबुद्धि पूर्वक व्यवहार भावों एवं क्रियाओं को बनाये रखने में सावधान हो जाते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि उपशम सम्यक्त्व का काल इतना अल्प होता है कि उसके पश्चात् निश्चित रूप से मिथ्यात्व तो होगा ही। अत: मुझे मिथ्यात्व दशा में होने वाले पर में एकत्व-ममत्व-कर्तृत्व-भोक्तृत्व स्वामित्व आदि से होने वाले भावों से बचते हुए, स्वरूप की महिमा बढ़ाकर पुन: सम्यक्त्व को सुरक्षित करने की सावधानी करनी चाहिए। इसप्रकार सत्यार्थ मार्ग की उपेक्षा कर देता है, वास्तव में व्यवहार चारित्र सम्बन्धी भाव करने का कार्य नहीं है वे तो सहज होने वाले भाव हैं। उन भावों को बनाये रखने की सावधानी के भाव तो कर्तृत्व एवं स्वामित्व बुद्धि के प्रदर्शक है, ऐसा आत्मार्थी द्रव्यदृष्टि के अभावपूर्वक पर्यायदृष्टि हो जाने से, मार्ग भ्रष्ट हो जाता है। तात्पर्य मिथ्यादृष्टि हो जाता है। ऐसा होने पर भी साधर्मियों से अपने को उत्कृष्ट मानता हुआ तथा दूसरे में अपनी महानता प्रदर्शित करने की चेष्टा में लग जाता है। पंचम गुणस्थान योग्य अन्तरंग शुद्धि नहीं होने पर भी व्यवहार क्रियाओं की दक्षता के द्वारा अपने को व्रती प्रतिमाधारी मान लेता है व दूसरों को भी प्रभावित करने की चेष्टा में लग जाता है। निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व 89 कुछ जीव सम्यग्दर्शन प्राप्त करने वाले आत्मार्थी के समान सत्यार्थ निर्णय करके, सत्यार्थ प्रकार से सच्ची रुचि की उग्रता के साथ, अन्तर्लक्ष्यी पुरुषार्थ भी करते हैं; लेकिन निर्विकल्प अनुभव के पूर्व ही, कषाय की मंदता के उत्कृष्ट भावों के समय एक विशेष प्रकार की मनजन्य शान्ति अनुभव में आती है। वह शान्ति अतीन्द्रिय आनंद की शान्ति नहीं होती, लेकिन ऐसी शान्ति को ही निर्विकल्प आनंद मानकर अपने को सम्यग्दृष्टि मान बैठते हैं। वे जीव भी पर्याय की महिमा आने से, पर्यायदृष्टिपूर्वक मिथ्यादृष्टि होते हुए मार्गभ्रष्ट हो जाते हैं। ऐसी दशा का चित्रण, पूज्य श्री कानजीस्वामी ने 'अध्यात्म संदेश' नामक पुस्तक में, पं. टोडरमलजी की रहस्यपूर्ण चिट्ठी के “सविकल्प से निर्विकल्प होने की रीति" के स्पष्टीकरण में विस्तार से किया है। उसमें सविकल्प से निर्विकल्प होने तक की दशा १४ स्टेजों को पार करने पर प्राप्त होती है। ऐसा विवेचन किया है। जिसे आत्मार्थी को मूलतः अध्ययन करना चाहिये। उक्त प्रकार के जीवों की स्थिति भी पूर्व कथित उपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के पश्चात् होने वाले मिथ्यादृष्टियों जैसी ही हो जाती है। एक बार उपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त करके मार्गभ्रष्ट हो जाने वाले जीव के तो संसार का अन्त समीप आ गया, वह तो उत्कृष्ट से उत्कृष्ट अर्ध पुद्गल परावर्तन काल में निश्चित रूप से यथार्थ मार्ग ग्रहणकर संसार का अन्त करेगा ही, लेकिन सम्यक्त्व तक पहुंचने के पूर्व की शान्ति को ही अतीन्द्रिय आनन्द मानकर जल्दबाजी करने वाला जीव मार्गभ्रष्ट हो जाने पर दीर्घ संसारी ही बना रहेगा। अमूल्य अवसर अर्थात् किनारे पर आकर पुन: भव समुद्र में चला जावेगा। __तात्पर्य यह है कि यथार्थ मार्ग प्राप्त करके भी तथा रुचिपूर्वक यथार्थ पुरुषार्थ करने पर भी उपरोक्त भूलों से बचे रहने के प्रति सावधान

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