Book Title: Nirvikalp Atmanubhuti ke Purv
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 35
________________ निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व हो गई। फलस्वरूप उनको द्रव्यदृष्टि हो गई। उनने ध्रुव की शरण लेकर, उसही की साधना की तो खजाने में भरा हुआ अनन्त अतीन्द्रिय सुख पर्याय में प्रगट हो गया, अब वे द्रव्य एवं पर्याय से सुखी रहकर, उक्त आनन्द के साथ प्रगट होनेवाली सर्वज्ञता आदि अनन्तगुणों का भोग करते रहेंगे अर्थात् स्वाद लेते रहेंगे (अनुभव करते रहेंगे) । 68 भव्य ! तू विचार कर अगर उनके ध्रुवरूपी खजाने (भण्डार) में उनका सुख होता ही नहीं तो उनकी पर्याय में प्रकट कैसे व कहाँ से जाता। जो प्रगट हुआ वह कहीं बाहर से आया नहीं। इसलिये तुझे भी नि:शंक होकर, ऐसी श्रद्धा जाग्रत करनी चाहिये कि मेरा सुख भी मेरे ध्रुवरूपी खजाने में पूरा का पूरा जितना व जैसा सिद्ध भगवान को प्रगट हुआ, वह हर समय (ध्रुव में) निरंतर विद्यमान रहता है। लेकिन ऐसा वर्तते हुये भी तुझे विश्वास (श्रद्धा) नहीं होने से तू, तेरे ही ध्रुव खजाने का तिरस्कार कर, तेरी अध्रुव क्षणिक पर्याय में से सुख प्राप्त करने के विश्वास से पर्याय को ही शरणभूत मानकर वर्तता रहा है। विचार कर, तेरे को सफलता कैसे प्राप्त होगी ? तू अपने सुख को आत्मा से अत्यन्त भिन्न वर्तनेवाले स्त्री- पुत्र - मित्र- मकान-धन वैभव आदि में से प्राप्त करने के प्रयास करता है। उन्हीं के सेवन से प्राप्त इन्द्रियजन्य सुख जो कि नाशवान होने से तुझे तीव्र आ उत्पादन करते हैं; उनको ही सुख मानकर उन्हीं के रक्षण पोषण में अमूल्य अवसर नष्ट कर देता है। मृत्यु प्राप्त होने पर अनन्त संसार में परिभ्रमण करेगा, जिसमें ऐसे सत् संयोग प्राप्त होना अत्यन्त कठिन हो जावेगा । तदुपरान्त अच्छी होनहार से सत् उपदेश प्राप्तकर, उपरोक्त विषयों की स्थिति समझकर, विषयों से विरक्ति को प्राप्त होता है। ऐसे अवसर में भोगने की गृद्धता में कमी आ जाने से कुछ कषायों की मंदता निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व जाती है। बहुत से जीव तो ऐसी मंदता प्राप्त कर, उसे ही धर्म मानकर, उसमें ही संतोष प्राप्त कर, बाहर के संयोगों से उदास रहने लगते हैं। बहुत जीव, विषयों के निमित्तभूत संयोगों को अधर्म का कारण मानकर, अंतरंग में विरक्ति नहीं होते हुए भी हठपूर्वक ऐसे संयोगों के प्रति द्वेष बुद्धिपूर्वक इन्द्रियदमन को ही धर्म मानकर, ऐसी जड़ की (शरीरादि ) क्रिया को ही धर्म मानकर, ऐसी क्रियाओं के बढ़ाने की ओर लग जाते हैं। ऐसे जीवों को तो आकुलता को ही धर्म अथवा धर्म का साधन मान लेने से अनाकुलता रूपी वास्तविक सुख प्राप्त करने का अवकाश ही नहीं रहता। ऐसे जीव ध्रुव रूपी खजाने की खोज करने वालों को अधर्मी मानकर उनका तिरस्कार करते हैं। 69 कुछ जीव ऐसे भी होते हैं कि सत्यार्थ उपदेश प्राप्तकर, उपरोक्त Safed मिथ्या मार्ग में नहीं फँसकर, अपने भावों के सुधारने की ओर अग्रसर होते हैं। वे आकुलता को दुख एवं दुःख का कारण मानते हुए, आकुलता की कमी अर्थात् मंदता करने को ही धर्म अथवा धर्म के कारण मानकर, ऐसे उपाय करने के प्रति सावधान रहकर, उन्हीं के करने में जीवन भर लगे रहते हैं। उनको ऐसा विश्वास (श्रद्धा) होता है कि क्रमशः कषायों को मंद करना ही सुखी होने का उपाय है। ऐसे व को भी सुख का खजाना खोजने की आवश्यकता नहीं लगती । अतः ऐसे जीव भी वास्तविक मार्ग से वंचित रहते हैं। जो ध्रुव की खोज में लगे हुए हैं, उनको अधर्मी समझकर उपेक्षा करते हैं। लेकिन ऐसे जीवों को अगर कभी सद्बुद्धि जाग्रत हो तो वे सत् उपदेश प्राप्त कर यथार्थ मार्ग समझने के प्रति अग्रसर हो सकते हैं। अन्यथा ऐसे जीव कषायों की मंदता के कारण स्वर्गादिक प्राप्तकर, फिर संसार में ही भ्रमण करते रहेंगे, संसार का अभाव नहीं कर सकेंगे। कुछ जीव ऐसे होते हैं, जो रागादि भावों को आकुलता - माट

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