Book Title: Nirvikalp Atmanubhuti ke Purv
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 21
________________ निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व क्या है व वह कैसे उत्पन्न होता है, उनका उत्पादक कारण किस प्रकार कौन है यह तो समझा ही नहीं है । जब सम्यक् उत्पाद के उपाय समझ में आवेंगे तभी मिथ्या उत्पाद के कारणों के अभाव का उपाय मिलना संभव है। अत: अब मुझे सम्यक् परिणमनों के उपायों की खोज करने के लिये, सम्यक् उत्पाद के स्वामी ऐसे अपने आत्मा के स्वरूप को अन्वेषण के साथ समझना पड़ेगा । अस्ति की 'मुख्यता से आत्मस्वरूप को समझना जीव नामक पदार्थ अर्थात् जीव नामक समय का स्वरूप, उसकी सामर्थ्य की जानकारी एवं उसके सम्यक् परिणमन का कारण एवं विपरीत परिणमन के कारणों का सांगोपांग संक्षिप्त विवेचन समयसार ग्रंथाधिराज की गाथा २ की टीका में बता दिया है। आत्मार्थी की कठिनतम समस्या का समाधान इस एक ही गाथा में है और इसी का विस्तार पूरा समयसार ग्रन्थ है। उक्त टीका का प्रथम चरण निम्न प्रकार है - " समय शब्द का अर्थ इसप्रकार है 'सम्' उपसर्ग है, जिसका अर्थ 'एकपना' है, और 'अयगतौ' धातु है, जिसका अर्थ गमन और ज्ञान भी है, इसलिये एक साथ ही (युगपत्) जानना और परिणमन करना - यह दोनों क्रियाएँ एकत्वपूर्वक करे वह समय है। यह जीव नामक पदार्थ एकत्वपूर्वक एक ही समय में परिणमन भी करता है और जानता भी है। इसलिये वह समय है ।" 40 टीका के उपरोक्त अंश से यह फलित होता है कि मेरा आत्मा अर्थात् मैं भी जीव नामक पदार्थ हूँ, इसलिये हर समय जानते हुये परिणमते रहना - यह तो मेरा अस्तित्व है, स्वभाव कहने से तो कदाचित् निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व विभाव की अपेक्षा भी लग सकती है, लेकिन जानते परिणमते हुए रहना यह ही मेरे अस्तित्व का परिचायक है, इसलिये आचार्यों ने चेतना रूप परिणमन यह जीव का लक्षण कहा है। जानना तो जाननामात्र होते हुये भी परिणमन क्रिया भी एकत्वपूर्वक होने से स्पष्ट है कि जाननक्रिया रूप परिमणन ही जीव का अस्तित्व है। 41 टीका के उपरोक्त अंश के आगे ही उन सामर्थ्यो का भी आचार्य श्री वर्णन करते हैं, जो उक्त जीव नामक पदार्थ के जानने रूप परिणमन में साथ होकर हर समय व्यक्त होती रहती हैं अर्थात् उक्त परिमणन में ये सभी सामर्थ्य हर समय व्यक्त रूप से परिणमती रहती हैं। अभी इस चर्चा के बीच आत्मा के अनंतगुण एवं उनके परिणमन आदि गुणपर्यायों के भेदों को मुख्य नहीं करना। उनको गौण रखकर, मात्र जीव (आत्मा) नामक समय (पदार्थ) का उपरोक्त परिणमन सम्यक् रूप अर्थात् स्वसमय रूप क्यों परिणमता है और विपरीत ( मिथ्या) पर समय रूप परिणमन कैसे करने लगता है। यह समझना है। आत्मा की उपरोक्त प्रकार से सामर्थ्यो का कथन आचार्यश्री ने सात प्रकार से कहकर समझाया है, उनका संक्षेपीकरण निम्नप्रकार है - (१) उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य की एकता रूप अनुभूति जिसका लक्षण है, ऐसी सत्ता सहित है। (२) जीव चैतन्यस्वरूप से नित्य उद्योत रूप निर्मल स्पष्ट दर्शनज्ञान ज्योति स्वरूप है। (३) और यह जीव अनन्त धर्मों में रहने वाला जो एक धर्मीपना है, जिसके कारण जिसे द्रव्यत्व प्रगट है। (अर्थात् अनंतगुणों के धारक (समुदाय) को द्रव्य कहते हैं। वहाँ अभिप्राय यह है कि अनन्तगुणों का अभेद एक द्रव्य ही परिणमता है ।) (४) वह क्रमरूप (पर्यायें) अक्रमरूप ( गुणों) प्रवर्तमान अनेक भाव जिसका स्वभाव होने से जिसने गुण पर्यायों को

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