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व्याकरण की सीमा में घिरे हुए हैं, इसलिए वे हमारे लिए अपरिचित हो गए हैं। 'ध' को 'ह' भी प्रायः नहीं किया गया है। जैसे- मधुकार (महुकार ११५ ), साधीणे ( साहीणे २।३) । सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया का प्रयोग हुआ है। जैसे - अहागडेहि (अहागडे ११४ ) |
उत्तराध्ययन का पाठ भी आदि से अन्त तक किसी एक प्रति के आधार पर स्वीकृत नहीं किया गया है । पाठ संशोधन में प्रयुक्त सभी आदर्शों में ३६।६५ का एक शब्द 'पुहत्तेण' है । अर्थ की दृष्टि से यहां 'पुहुत्तेण' होना चाहिए। बृहद्वृत्ति (पत्र ६८६ ) में इसके तीन अर्थ किए गए हैं - महत्व, बहुत्व और सामस्त्य | ये तीनों पृथु शब्द के अर्थ हो सकते हैं, पृथक् शब्द के नहीं । अभिधान चिंतामणिकोष (६। ६५) में पृथु शब्द के पर्यायवाची नामों में महत् और बहु दोनों शब्द हैं । बृहद्वृत्ति ( पत्र ६८६ ) में पृथक्त्वेन मुद्रित हुआ है, वह सम्भवतः लिपि दोष के कारण हुआ है । उसका मुद्रित मूल पाठ 'पुहुत्ते"' है । उक्त अर्थ के पर्यालोचन और उपलब्ध मुद्रित पाठ के आधार पर हमने 'ते' पाठ स्वीकृत किया है ।
इस प्रकार और भी अनेक पाठ चूर्णि और बृहद्वृत्ति के अर्थालोचनपूर्वक स्वीकृत किए गए हैं ।
चौंतीसवें अध्ययन में 'पद्मलेश्या' के लिए 'पम्हलेस्सा' शब्द का प्रयोग हुआ है। पम्ह शब्द संस्कृत ' पक्ष्म' का प्राकृत रूपान्तर है । 'पद्म शब्द के दो प्राकृत रूप बनते हैं- पउम' और 'पम्म । किन्तु 'पम्ह' रूप नहीं बनता । गोम्मटसार के लेश्या मार्गणाधिकार में पद्मलेश्या के लिए पम्म और 'परम' - दोनों शब्द प्रयुक्त हुए हैं । हमने 'पम्ह' शब्द ही रखा है। क्योंकि पाठ संशोधन में प्रयुक्त या अन्य किसी भी आदर्श में पम्म' या पउम' शब्द नहीं मिला । दशवेकालिक और उत्तराध्ययन के उद्धृत पाठ
दशवेकालिक और उत्तराध्ययन- ये दोनों सूत्र ने अपनी-अपनी रचनाओं से स्थान-स्थान पर इन्हें
प्रारम्भ से ही बहुचर्चित रहें हैं । अनेक आचार्यों उद्धृत किया है । ये उद्धृत पाठ शब्द और भाषा की दृष्टि से कुछ परिवर्तित रूप में प्राप्त होते हैं। यह भिन्नता क्षेत्र, काल और परम्परा के भेद के कारण हुई, ऐसा प्रतीत होता । इन भिन्नताओं के कुछेक उदाहरण ये हैं :
मूलपाठ
वितहं पि तहामुत जं गिरं भासए नरो ।
तम्हा सो पुट्ठो पावेगं कि पुण जो मुसं वए ? ॥ ( दशकालिक ७/५ )
बृहत्कल्प भाष्य, भाग २, पृष्ठ २६० पर उद्धृत पाठवितहं पि तहामुति, जो तहा भासए नरो । सोविता पुट्ठो पावेगं कि पुणं जो मुसं वए
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मूलपाठ
तिण्हमन्नयरागस्स निसेज्जा जस्स कप्पई ।
जराए अभिभूयस्स वाहियस्स तवस्सिणो ॥ ( दशवैकालिक ६:५६ )
१. हेमशब्दानुशासन, ८१११८७
२. गोम्मटसार ( जीवकाण्ड), गाथा ४६२,५०२
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